परिवार और समाज प्रेम से चलते हैं न्याय से नहीं
चेन्नईPublished: Dec 08, 2018 12:09:00 pm
उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा चेन्नई में जितने परोपकार और सेवा के काम चलते हैं राजस्थानी समाज द्वारा चलाए जाते हैं।
परिवार और समाज प्रेम से चलते हैं न्याय से नहीं
चेन्नई. वेस्ट माम्बलम में राजस्थानी जैन समाज में उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा चेन्नई में जितने परोपकार और सेवा के काम चलते हैं राजस्थानी समाज द्वारा चलाए जाते हैं। राजस्थानी-मारवाड़ी समाज के अन्तर रक्त में पराए को अपना बनाने की कला समाई हुई है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां राजस्थानी समाज न पहुंचा हो। यह रणबांकुरों का समाज है। इसकी परंपरा है अपनी इज्जत को सुरक्षित रखने के लिए सारे सुख त्यागकर जी-जान लगा देना यही इस समाज की विशेषता है।
देश के कई स्थानों पर राजस्थानियों के विपरीत माहौल भी बनता है लेकिन इसका क्या कारण है इस पर चिंतन करने की जरूरत है। आज के समय में वह अपनों के लिए खड़ा होने का हौसला कहां चला गया। हम दूसरों के लिए तो स्ट्राइक और सपोर्ट कर सकते हैं लेकिन अपने समाज के भाई के लिए स्ट्राइक और सपोर्ट नहीं कर सकते। महाभारत भी युद्ध है और रामायण भी लेकिन दोनों में अन्तर है। समाज के लिए किसी एक को तो चुनना ही होगा। जहां भाई-भाई से लड़ता है वहां महाभरत होता है, जहां परायों से लड़ा जाता है वहां रामायण होती है।
वास्तविक जीवन में हमें भी कहीं न कहीं अन्याय को स्वीकार करना ही पड़ता है। कोई बदमाश रूपए मांगता है तो बिना पूछे देना पड़ता है लेकिन अपने भाई को हिसाब पूछते हैं। दुर्योधन कर्ण को बिना मांगे राज्य दे सकता है लेकिन पांडवों को पांच गांव भी नहीं देता है। हमें चिंतन करना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं। जितना दान हम दूसरों को देते हैं उतना यदि समाज की संस्थाओं को दे दिया जाए तो समाज की उन्नति कहां की कहां पहुंच सकती है। परायों का तो प्रोटोकाल फोलो करते हैं लेकिन अपनों को अहमियत नहीं देते। क्या यह जिंदगी की शान है। आज समाज के लोगों को एक मंच तैयार करने की आवश्यकता है कि समाज में क्या चल रहा है और क्या होना चाहिए, इस पर चिंतन कर समाधान निकालने की जरूरत है।
अपना इतिहास भूलकर हम परायों को गले लगा लेंगे लेकिन अपनों का गला घोंटने का काम नहीं छोड़ते। अपने बच्चों को दूसरों की संस्कृति में पढ़ाने-लिखाने और पराए संस्कार देनेवाले तथा अपने हाथों से कान्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों का धर्मांतरण करानेवाले मां-बाप पूरे समाज के लिए दुर्भाग्य लाते हैं। जब बचपन में आप उन्हें धर्म-संस्कार नहीं दे रहे तो उनके युवा बनने के बाद उनसे धर्म में आस्था की अपेक्षा कर नहीं पाओगे। क्रिश्चियनिटी कान्वेंट स्कूलों में पढऩे वाले आपके बच्चे शाम को कैसे प्रवचन सुन पाएंगे। इस प्रकार की मानसिकता हमारी संस्कृति और संस्कारों का नाश करनेवाली है। इसके परिणाम भयंकर आनेवाले हैं।
इसके समाधान के लिए एक सुर में शुरुआत करना जरूरी है। केवल पेट की खुराक लेनेवाला पशु है और जिनको दिल और दिमाग दोनों की खुराक चाहिए वही इंसान हैं। इसलिए पशुओं का समूह होता है और इंसानों का समाज होता है। जिसमें समझ होती है, वह इंसान होता है। बिना समझ का जुटते रहोगे तो गुम हो जाओगे। समझ के साथ मिलते रहोगे तो मजबूती से खड़े रह पाओगे।