किताब में बताया है कि सरकारें राजनीति में पैसे का बोलबाला रोकने में असमर्थ है। सबसे बड़ी खामी यह है कि जो लोग कालाधन बना रहे हैं उनकी पहचान एक साजिश के तहत नहीं होती है। शीर्ष नेतृत्व उन्हीं उम्मीदवारों का चुनाव करता है जिनके पास धनबल है और जो चुनावों में बेशुमार खर्च कर सकते हैं।
अर्थतंत्र और कानून
किताब का पहला अध्याय देश की अर्थव्यवस्था में राज्यों के योगदान पर ध्यान केंद्रित करने के साथ खराब कानून व्यवस्था के बारे में है। लेखक ने कहा है कि कानून एक शब्द बन गया है और जिस दिन ये कमजोर होगा उस दिन भारत में किसी भी काूनन को तोडऩा या खंडित करना संभव होगा। दूसरे अध्याय में निलांजन सिरकार का 2004 से 2014 के बीच हुए चुनावों का विश्लेषण है जिसमें उम्मीदवारों की संपत्ति पर विशेष जोर दिया है जो चुनावों में उनकी किस्मत तय करती है। राजनीतिक पार्टियों के लिए उम्मीदवार और काले धन के रिश्ते को अटूट बताया गया है।
राजनीति और रियल एस्टेट
अध्याय तीन देवेश कपूर और मिलन वैश्णव ने लिखा है और खुलासा किया है कि भारतीय राजनीति में कैसे बिल्डर्स वित्तीय जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। इन्होंने देखा है कि कैसे चुनावों के समय में सीमेंट की खपत कम हो जाती है और एकमुश्त पैसा चुनावों में लगाया जाता है। पर सवाल उठता है कि कैसे चुनावों के खत्म होने के बाद पैसा फिर से रियल एस्टेट और निर्माण क्षेत्र का काम दोबारा शुरू हो जाता है। इसमें बेतहाशा रकम का निवेश कहां से हाने लगता है ? इसका सच ये है कि उस समय चुनावों में फंडिंग के लिए बिलिंग में खेल किया जाता है जिस वजह से खपत कम दिखने लगती है। इसके साथ ही इस बात पर भी बहस होनी चाहिए कि चुनावों से पहले जनहित से जुड़े काम तेजी से शुरू होते हैं तो सीमेंट की खपत तो बढ़ जानी चाहिए पर ऐसा नहीं होता है।
राजनीतिक पार्टियों के आपसी संबंधों का रहस्य भी खोला
ताब में माइकल कॉलिन्स ने छोटी राजनीतिक पार्टियों और बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बीच के रहस्य को भी खोला है। तमिलनाडु की एक छोटी राजनीतिक पार्टी वीसीके का वहां के बड़ी पार्टियों के संबंध के बारे में विस्तार से लिखा है कि कैसे दो पार्टियां आपस में मिलकर कैसे रणनीति बनाती हैं और लोकतंत्र का चुनाव करने वाली जनता को इसकी खबर तक नहीं होती है। लिसा, जेफरी विटसो और साइमन चाउचार्ड ने चुनावी रणनीति बनाने के तौर तरीकों पर लिखा है। बहस करते हुए लिखते हैं कि चुनावों से पहले वोट के लिए तोहफा देना आम बात है लेकिन इससे वोट नहीं मिलते हैं। नकदी वितरण ही उम्मीदवारों के पास आखिरी विकल्प होता है जिससे उन्हें बहुत कुछ हासिल होता है। साइमन लिखते हैं कि चुनाव अब बहुत महंगे हो चुके हैं। इसलिए नहीं कि वोटरो को तोहफे देने पड़ते है बल्कि कई तरह के दूसरे खर्चे जुड़ गए हैं। भारत के चुनावों में ये स्थिति आम है। जेनिफर बुसेल ने सवाल उठाया है कि आखिर क्या कारण है कि भारत में ‘ब्लैक इकोनॉमी’ को बढ़ावा मिल रहा है जिसका असर राजनीति पर हो रहा है ? इसका कोई सामान्य जवाब नहीं है।
लेखक परिचय
देवेश कपूर, यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया के सेंटर फॉर द एडवांस्ड स्टडी इन इंडिया (सीएएसआइ) के निदेशक हैं। पॉलीटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से पीएचडी हैं।
मिलन वैश्णव, कार्नेज इंडाउनमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के साउथ एशिया प्रोग्राम के वाशिंगटन डी.सी में सीनियर फेलो हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र में पीएचडी हैं।