सीधे—सीधे तौर पर कहा जाए कि कांग्रेस के इस हनी ट्रेप में भाजपा फंस गई है। इससे एक बार फिर आरएसएस विचारधारा के विरोधी खासकर एक विशेष समुदाय के लोग जो हाल ही में भाजपा की कुछ नीतियों के कारण भाजपा की ओर झुक रहे थे, इस सियासी बवाल के बाद फिर से कांग्रेस का दामन थामेंगे।
दिग्विजय सिंह एक ऐसे अकेले नेता हैं जो हमेशा से संघ के घुर विरोधी रहे हैं।
वे अपने बयानों में जाने अनजाने में संघ को घसीट लाते हैं। उल्लेखनीय है कि दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए मई 2000 में एक आदेश जारी कर सभी सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की शाखाओं में शामिल होने और संघ को किसी भी प्रकार से सहयोग करने पर प्रतिबंध लगाया था।
आदेश में स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई कर्मचारी आदेश का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ मप्र सिविल सेवा आचरण नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। मजेदार बात यह है कि 2003 में भाजपा सरकार आने के बाद यह आदेश जस का तस लागू रहा। इसे न तो तत्कालीन मुख्यमंत्री उमाभारती ने बदला न ही तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने।
शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के एक साल तक यह आदेश लागू रहा। संंघ की नाराजगी के बाद शिवराज सिंह ने सितंबर 2006 को यह प्रतिबंध हटाने का आदेश जारी किया। इसे लेकर कांग्रेस के नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इसे असंवैधानिक बताया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने दावे के मुताबिक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन नहीं है।
वह एक राजनीतिक संगठन है, जो कभी परदे के पीछे रहकर और कभी सामने आकर बीजेपी के माध्यम से राजनीति करता है। एक राजनीतिक संगठन की शाखाओं में सरकारी कर्मचारियों का जाना स्टेट सविर्स रूल के खिलाफ है। उन्होंने आरोप लगाया कि आरएसएस एक कट्टरवादी फॉसिस्ट संगठन है, जिसने ७० के दशक में खुद बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में एक शपथपत्र देकर कहा था कि वह सामाजिक या सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि राजनीतिक संगठन की तरह काम करता है।
यह शपथपत्र आरएसएस को इसलिए देना पड़ा कि इनकम टैक्स विभाग ने उससे वह टैक्स देने को कहा था, जो सामाजिक संगठनों को देना पड़ता है, जबकि राजनीतिक संगठनों को टैक्स से छूट है।
अटल के कहने पर मोदी ने लिया था आदेश वापस
कुछ साल पहले गुजरात में नरेंद मोदी सरकार ने भी सरकारी कर्मचारियों के शाखाओं में जाने के प्रतिबंध को समाप्त किया था। कांग्रेस ने इसके खिलाफ आंदोलन किया था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को मोदी से आदेश वापस लेने के लिए कहना पड़ा था। मोदी को आदेश वापस लेना पड़ा। चतुर्वेदी ने आरोप लगाया कि मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार इस आदेश के जरिए प्रशासन का राजनीतिकरण और सांप्रदायिककरण करना चाहती है।