लगभग दशक पहले जब यहां गिनी-चुनी औद्योगिक इकाइयां थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिय़ा ने पांसल चौराहे के निकट लेबर कॉलोनी विकसित की थी। वर्तमान में कॉलोनी का नाम ही रह गया है। साढ़े चार सौ से अधिक औद्योगिक इकाइयों में 80 हजार से अधिक श्रमिक हैं।
उनके आवास व अन्य सुविधाओं के लिए न तो सरकार ने ध्यान दिया और न ही श्रमिकों के हितों का दम भरने वाले श्रमिक नेताओं ने सकारात्मक कदम उठाए। सरकारी और राजनीतिक उदासीनता के कारण औद्योगिक विकास की नींव रखने वाले श्रमिक अपने परिवारों के साथ आज भी जवाहरनगर, कांवाखेड़ा, बाबा धाम, पटेल नगर, मजदूर कॉलोनी, चपरासी कॉलोनी सहित अन्य बस्तियों में किराए के मकान में जीवन बिताने को विवश हैं। हजारों श्रमिक शहर की कच्ची बस्तियों में रह रहे हैं।
अस्तित्व खोती लेबर कॉलोनी श्रमिकों की आवासीय सुविधा के लिए करीब पांच दशक पूर्व वर्ष 1958 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडि़या ने पांसल चौराहे के निकट सरकार की ओर से निर्मित मजदूर कॉलोनी का लोकार्पण किया था। इसमें लगभग चार-पांच दर्जन आवासों का निर्माण कराया गया था। पुरोधाओं की सार्थक सोच से निर्मित कॉलोनी का अस्तित्व ही क्षीण हो गया। शहर में श्रमिकों की संख्या में अनपेक्षित बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद सरकार ने बीते पांच दशक में मजदूर आवासीय कॉलोनी विकसित करने की दिशा में सकारात्मक पहल नहीं की।
उठाई थी आवाज कुछ श्रमिक संगठनों ने यूआइटी से श्रमिक कॉलोनी बनाने की मांग की थी। इसके अलावा यूआइटी की इंदिरा विहार योजना में खाली मकानों को निर्धारित दर पर श्रमिकों को देने के लिए भारतीय मजदूर संघ ने प्रस्ताव रखा था। यूआइटी सचिव ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। आटूण स्थित इंदिरा विहार के समीप रीको और चित्तौडग़ढ़ औद्योगिक एरिया होने से श्रमिकों के लिए आवास उपयुक्त साबित होते।
मजदूरों के हितों के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए & मजदूर कॉलोनी विकसित नहीं होना गम्भीर समस्या हैं। रीको की ओर से ग्रोथ सेन्टर में बनाए जाने वाले आवास का प्रस्ताव भी खटाई में है। मजदूरों को मकान देने के लिए यूआइटी व हाउसिंग बोर्ड को पत्र लिखे थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सरकार को मजदूरों के हितों के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए।
प्रभाष चौधरी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ