फिलहाल एक राजनीतिक परिवार का मामला हवा में तैर रहा है इस मंच पर न कोई नैतिक मूल्य हैं और न ही कोई सिद्धांत। फिलहाल एक राजनीतिक परिवार का मामला हवा में तैर रहा है। जो मामला है उसकी परतें कई-कई बार उधेड़ी जा चुकी हैं तब यह दबा रह गया। वहीं ऐसा करने वाले दल पर टिकट बेचने का आरोप जड़ा जा रहा है। अब सच कौन पता लगाए? कई मर्र्तबा उन मसलों को भी संभालकर रखा जाता है जो अवसर आने पर ब्रह्मास्त्र की तरह काम आएं। एक तरह से चुनाव को प्रभावित करने वाले फैक्टर पर इसे टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। एक जगह पदवी को लेकर सवाल उठाया गया, एक ज्ञानी जो सब जानता है, फिर भी पहले कभी उसपर बात नहीं करता। बात समाज की है, इसे भी सियासी बना दिया गया। ऐसा भी हो रहा है कि विरोधियों के साथ अपनों को भी नहीं बख्शा जा रहा।
हर सीट का अपना गड्ढा चुनाव जीतने के बाद का गणित लगाया जा रहा है। हर सीट का अपना गड्ढा है, उसमें कुछ न कुछ दबा है। सब उखाडऩे में लगे हैं। दरअसल मंसूबा है कि चुनाव आया और ऐसी कोई बात छेड़ दी, जिससे जीत झोली में आ गिरे। कोई दस-बीस साल का हिसाब मांग रहा है, अच्छी बात है पूछना चाहिए, पर बरखुदार अपने दो-पांच साल का लेखा-जोखा भी बता देते तो अच्छा होता। सबसे ज्यादा दाग बाहरी होने का लगाया जा रहा है। कुछ नहीं मिला तो बोल दिया, प्रत्याशी बाहरी है। उसके मूल स्थान को खोदना शुरू कर दिया जाता है। बाप-दादा तक की खबर ली जा रही है। अपनी गिरहबां में झांको तुम जिनके बीच के थे, उनको क्या दे दिया? ग्रामीण अंचल की एक विधानसभा में कद्दावर नेता फिर उतरे हैं। यहां हार-जीत के लिए जातिगत समीकरण का बोलबाला है।
भीतरी-बाहरी भी अब मायने नहीं रखता पर लोग समझदार हो चले हैं, भीतरी-बाहरी भी इनके लिए अब मायने नहीं रखता। कहते हैं..आप हमारे साथ हम आपको चुनते थे तो हमारी हालत ऐसी क्यों? तो जनाब जनता जवाब मांगने लगी है। इसलिए अब अपनी बात करो, दूसरे की उसपर छोड़ दो। किसी के लिए गड्छा मत खोदो, खुद को बुलंद करो। गंदगी मत फैलाओ, राजनीतिक शुचिता का ध्यान रखो। सियासी संग्राम है वीर योद्धा की तरह सामने से वार करो। असल मुद्दों और किसी मकसद के साथ चुनाव मैदान में उतरो। उस जनता को मत भूलो, जिसके मत से जीतकर माननीय बनने का गौरव हासिल करोगे।
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