राज्यवृक्ष खेजड़ी (
Prosopis cineraria) रेगिस्तान में बहुतायत में है। खेजड़ी के पत्ते पशुधन के चारे के रूप में काम आते हैं और इसका फल सांगरी सब्जी में महत्वपूर्ण है। खेजड़ी की लकड़ी का उपयोग ईंधन में होता है। खेजड़ी का उपयोग किसान व पशुपालकों के लिए तो महत्वपूर्ण रहा ही है केर-सांगरी की सब्जी का लजीज स्वाद अब राजस्थान की पहचान बनने के साथ पांच सितारा होटलों तक में पसंद किया जाने लगा है। खेजड़ी खेत और जंगलों में बहुतायत होती है लेकिन शहरों में बगीचों या छोटे स्थान पर खेजड़ी उगाने से इसलिए परहेज किया जाता है कि एक तो यह वृक्ष के रूप में 15 से 25 फीट तक ऊंची रहती है। तना लंबा होने से इस पर चढऩा मुश्किल और ऊपर से टहनियों पर कांटे। एेसे में यह शहरी क्षेत्र और खेतों से भी कम होने लगी है।
अब बगीचों में लग पाएगी- बीकानेर के शुष्क अनुसंधान केन्द्र ने 2006-07 में खेजड़ी की नई किस्म तैयार की है जिसे थारशोभा नाम दिया गया है। इसकी दो बड़ी खासियत है। एक इसकी लंबाई पांच से सात फीट तक ही होती है। एेसे में आसानी से इस पेड़ से फल लिए जा सकते हैं और बगीचे में भी लग जाएगी। दूसरा इस पर कांटे नहीं है। घर में कांटेदार पौधे लगाने से परहेज किया जाता है।
आर्थिक बन सकती है खेजड़ी खेजड़ी का पत्ता जहां बकरियों के खाने में काम आता है वहीं इसकी सांगरी 100 रुपए प्रति किलोग्राम बिकती है। सूखी सांगरी 800 रुपए प्रति किलोग्राम बेची जा रही है। थारशोभा के पांच साल के पौधे पर पांच से सात किलोग्राम सांगरी और 8 से 10 साल के पौधे पर 35 से 40 किलोग्राम सांगरी आ जाती है। इन पौधों को खेतों में लगाकर आर्थिक उन्नति लाई जा सकती है तो दूसरी ओर घरों में लगाया जाए तो ये पौधे हर साल सांगरी की सब्जी के शौकीनों का जायका पूरा कर सकते हैं।
बाड़मेर में प्रयोग रहा सफल बाड़मेर के कृषि विज्ञान केन्द्र दांता में करीब दो साल पहले 200 पौधे मंगवाकर इस इलाके में लगवाए गए। यह प्रयोग सफल रहा। इसलिए इस साल फिर 500 पौधे मंगवाए गए हंै। अब यहां मरूशोभा लगने की संभावनाएं बढ़ गई है।
– डॉ. प्रदीप पगारिया, कृषि वैज्ञानिक 60 हजार खेजड़ी लग जाएगी इस साल तक पचास हजार नन्हीं खेजड़ी अब तक लगा चुके हैं। 10 हजार की इस साल मांग आई है। राज्य के साथ अब हरियाणा से भी मांग आने लगी है। जहां शुष्क क्षेत्र है, वहां पर यह वृक्ष उपयोगी है। इसकी नन्हा होना ही महत्वपूर्ण है।
-डॉ.दीपक सलारिया, शुष्क बागवानी अनुसंधान केन्द्र, बीकानेर