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सपा-बसपा को इस मुस्लिम पार्टी की धमकी, हमें गठबंधन में नहीं शामिल किया तो भुगतने होंगे परिणाम

locationआजमगढ़Published: Jan 21, 2019 02:56:04 pm

पार्टी नेता ने कहा, गठबंधन मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व को समाप्त करने व समाज को गुलाम बनाए रखने की साज़िश।

Mayawati Akhilesh Ulema Council

मायावती अखिलेश यादव और उलेमा काउंसिल

आजमगढ़. सपा बसपा को गठबंधन के बाद 2019 लोकसभा चुनाव में अपनी जीत भले ही पक्की दिख रही हो लेकिन इसका विरोध शुरू हो गया है। विरोध भी वही कर रहे है जिनके दम पर यह गठबंधन जीत का दावा कर रहा है। मुस्लिम बुद्धजीवियों को इस गठबंधन में मुसलमानों का अहित दिख रहा है। इनका मानना है कि इस गठबंधन में मुसलमानों का प्रतिनीधित्व शून्य है। वहीं विधानसभा चुनाव में बसपा के साथ खड़ी रही राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना आमिर रशादी ने तो इस गठबंधन पर ही सवाल खड़ा कर दिया है और दावा किया है कि विधानसभा चुनाव में बसपा 17 में से 11 सीट उलेमा कौंसिल की वजह से जीती थी। उन्होंने सवाल किया कि आखिर कब तक मुसलमान इनके सेक्युलरिजम का कुली बनकर इन्हें ढोता रहेगा।
मौलाना रशादी ने कहाकि, ‘‘सेकुलरिज्म के नाम पर बने इस तथाकथित गठबंधन में सबसे ज़्यादा अगर कोई खुद को ठगा महसूस कर रहा है तो वो मुस्लिम समाज है क्योंकि दशको से मुस्लिम समाज ने परम्परागत तरीके से सपा-बसपा को वोट दिया है और 70 सालों से सेकुलरिज़्म लगातार सेकुलरिस्म की बुनियाद को मजबूत किया है परंतु इस गठबंधन से मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को दूर रखना न केवल सपा-बसपा का मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों के प्रति राजनैतिक दुर्भावना है बल्कि समाजिक न्याय के मूल्यों के भी विरुद्ध है‘‘। उन्होंने कहा कि 7 प्रतिशत यादव समाज के नेता अखिलेश यादवजी और 11 प्रतिशत जाटव समाज की नेता मायावती ने आपस में 38-38 सीटों का बंटवारा कर रही है और 22 प्रतिशत मुस्लिम समाज के नेताओं को शून्य हिस्सेदारी देकर मुफ्त में सिर्फ भाजपा का डर दिखा उनका वोट लेना चाहती हैं। मुस्लिम समाज अब राजनैतिक तौर पे जागरूक हो चुका है और खौफ और डर की राजनीति से बाहर आकर अपने राजनैतिक अधिकारों, प्रतिनिधित्व और नेतृत्व के लिए चेत चुका है। मुसलमानों को अब खैरात में मुस्लिम नाम वाले सपा-बसपा के प्रतिनिधि नही चाहिए बल्कि उन्हें मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने वाले लीडर चाहिए जो उनके समाज के मसलों को सड़क से संसद तक बिना किसी दबाव के उठा सके और उन्हें हल करा सके।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2012 में 69 मुस्लिम एमपी एमएलए थे फिर भी मुजफ्फरनगर से लिये सैकड़ों दंगे हो गए और सपा-बसपा के पचासों मुस्लिम प्रतिनिधि में से कोई भी अपनी आवाज तक नही उठा सका क्योंकि पार्टी नेतृत्व से इजाजत नही थी। यही नही मौजूदा भाजपा केन्द्र सरकार के द्वारा मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर हमारे शरई मामलों में दखल देते हुए ट्रिपल तलाक पर असंवैधानिक बिल लाने का खुलकर विरोध तक ये तथाकथित सेकुलर दल संसद में न तो खुद कर सके न इनके मुस्लिम नाम वाले लोकसभा/राज्यसभा सांसद कर सके। ऐसे में इनमे और भाजपा में क्या फर्क रह गया कि भाजपा ने बिल लाया और सपा/बसपा ने अनुपस्थिति रह कर अपनी मौन सहमति देदी। ऐसे हालात में मुसलमानो के पास अपनी आवाज उठाने के लिए केवल उनके अपने नेतृत्व वाले राजनैतिक दल ही विकल्प के रूप में बचते हैं। क्योंकि देश के वर्तमान राजनैतिक परिवेश में हर समाज का कहीं न कहीं अपना राजनैतिक दल है जो उस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहा है और उसकी समस्याओं को उठा उनका निदान कराने में प्रयासरत है।
ऐसे हालात में आज तेजी से प्रदेश और देश का मुसलमान भी अपने नेतृत्व वाले राजनैतिक दलों में विश्वास कर रहा है। सपा-बसपा के इस गठबंधन के द्वारा मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को सिरे से नकार देना कहीं न कहीं इन मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को खत्म करने की साजिश नजर आती है। ज़ाहिरी तौर पर सपा-बसपा ने ये गठबंधन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया है पर कहीं न कहीं भाजपा को रोकने के नाम पर मुसलमानों का वोट भाजपा का डर दिखा एक मुश्त लेकर तेज़ी से उभर रहे मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को अलग-थलग करने के लिए भी किया गया है?।
अगर ये सच नही है तो अखिलेश और मायावती बताएं कि सच क्या है? आखिर इस गठबंधन में मुसलमानो को जगह क्यों नही है? जबकि बिना गठबंधन के 2 सीट काँग्रेस के लिए छोड़ दी गयी है तो वहीं 2 सीट 1.5 प्रतिशत वोट बेस वाले अन्य दल के लिए छोड़ दी गयी है तो फिर इस हिसाब से संख्या के आधार पर मुस्लिम नेतृत्व वाले दल के लिए 16 सीट बनती थी। 16 न सही 10 ही छोड़ते पर यहां तो 2 सीट भी मुस्लिम समाज के लीडरों के लिए नही घोषित की गई।
उन्होंने सवाल किया कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए दोनों दलों के पास क्या मंसूबे हैं? आखिर कब तक मुसलमान इनके सेकुलरिस्म का कुली बन उसे ढोता रहेगा और ये दल उसके सहारे सत्ता का लाभ लेते रहेंगे। अखिलेश यादव ने तो 2017 के विधानसभा चुनावों से ही मुसलमानो का नाम अपनी जबान से लेना छोड़ दिया है, अगर कहीं बोलना भी होता है तो अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
उन्होंने कहा कि बसपा 2014 के आम चुनाव में एक भी लोकसभा सीट न जीत सकी और उसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा, ऐसे हालात में दलित लीडरशिप को बचाए रखने के लिए हमने बाबा साहब अम्बेडकर को संसद में भेजने के लिए मुस्लिम लीग के दिए गए बलिदान के इतिहास को दोहराते हुए 2017 के विधानसभा चुनावों में प्रदेश हित व जनहित में अपने समस्त प्रतयाशीयों को वापस ले बसपा को निस्वार्थ पूर्ण समर्थन का एलान किया था ताकि समाज के सबसे शोषित व वंचित तबके दलित-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम हो सके। राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल के आहवान पर प्रदेश के मुसलमानों का एक बड़ा तबका बसपा के साथ खड़ा रहा और बसपा 19 सीट जीतने में कामयाब रही जिसमे पूर्वांचल की 11 सीटों पर जीत में राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल की निर्णायक भूमिका रही। वहीं प्रदेश की अन्य जीती हुई सीटों पर भी कौंसिल का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 2012 व 2017 विधानसभा चुनावों के आंकड़ें इस बात का जीता जागता सबूत हैं परंतु ये दुःखद है कि मायावती ने प्रदेश के मुसलमानों व उनके नेतृत्व के इस बलिदान को भी नकार दिया और उपरोक्त गठबंधन में मुस्लिम नेतृत्व को प्राथमिकता नही दी। सपा-बसपा ने सोची समझी रणनीत के तहत मुस्लिम नेतृत्व वालों दलों को इस गठबंधन से दूर रखा। यह मुसलमानों को अपना राजनैतिक गुलाम बना उन्हें मात्र वोट बैंक तक सीमित रखने की साजिश की है।
अगर ऐसा नही है तो तत्काल सपा बसपा मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को लेकर अपना मत स्पष्ट करें और अपने इस तथाकथित ‘महागठबंधन‘ में राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल व अन्य मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को प्रतिनिधत्व दें। वर्ना राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल अपने समाज और शोषित-वंचित, दलित व पिछड़े समाज के लिए लड़ने वाले अन्य दलों तथा समान विचारधारा वाले दूसरे दलों के साथ मिल कर एक नया गठबंधन को खड़ा करेगी और भाजपा व सपा-बसपा के विरुद्ध एक नया विकल्प देगी।
By Ran Vijay Singh

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