वन और पर्यावरण के लिहाज से ये राहत की बात है कि पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव पर ओजोन छिद्र 40 वर्षों में सबसे कम नजर आ रहा है, जब पहली बार 1980 में इसका पता लगाया गया था। नासा ने हाल ही बताया है कि सूर्य से पृथ्वी की रक्षा करने वाली ओजोन परत में इस वक्त 58 लाख वर्ग किलोमीटर का छेद है। यों तो यह काफी बड़ा है, लेकिन सितंबर से अक्टूबर के मध्य यह क्षेत्र लगभग एक करोड़ 28 लाख वर्ग किमी बड़ा हो जाता है। समताप मंडल में मौजूद ओजोन मंडल सूर्य की हानिकारण पराबैंगनी किरणें (अल्ट्रावायलेट) को अवशोषित करता है। पराबैंगनी विकिरण त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को कम करने के साथ ही पौधों को नुकसान पहुंचाती हैं। इसलिए ओजोन को पृथ्वी का सुरक्षा कवच कहा जाता है।
मानवीय प्रयासों से नहीं मौसम से हुआ बदलाव
नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि ओजोन छिद्र सिकुडऩे की वजह प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन में कमी के प्रयासों से नहीं बल्कि मौसम परिवर्तन के कारण हुआ है। वैज्ञानिक 2070 तक ओजोन के छिद्र को 1980 जितने आकार पर लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ये छिद्र सितंबर-अक्टूबर में जब सूर्य दक्षिणायन दिशा में गतिमान होता है, अपने चरम पर पहुंच जाता है और दिसंबर तक लगभग गायब हो जाता है।
नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि ओजोन छिद्र सिकुडऩे की वजह प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन में कमी के प्रयासों से नहीं बल्कि मौसम परिवर्तन के कारण हुआ है। वैज्ञानिक 2070 तक ओजोन के छिद्र को 1980 जितने आकार पर लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ये छिद्र सितंबर-अक्टूबर में जब सूर्य दक्षिणायन दिशा में गतिमान होता है, अपने चरम पर पहुंच जाता है और दिसंबर तक लगभग गायब हो जाता है।
1987 में क्लोरीन पर लगाया था प्रतिबंध
क्लोरीन के यौगिक ओजोन को नुकसान पहुंचाते हैं। 1987 के अंतरराष्ट्रीय मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने क्षति को कम करने के लिए रेफ्रिजरेटर में इस्तेमाल होने वाले क्लोरीन पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब से ओजोन छेद का आकार कम हुआ, लेकिन आज भी इसका इतना प्रयोग हो रहा है, जो ओजोन को नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है। अंटार्कटिका पर इसका सर्वाधिक प्रभाव है। जो दुनिया के अन्य स्थान पर नहीं है।
क्लोरीन के यौगिक ओजोन को नुकसान पहुंचाते हैं। 1987 के अंतरराष्ट्रीय मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने क्षति को कम करने के लिए रेफ्रिजरेटर में इस्तेमाल होने वाले क्लोरीन पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब से ओजोन छेद का आकार कम हुआ, लेकिन आज भी इसका इतना प्रयोग हो रहा है, जो ओजोन को नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है। अंटार्कटिका पर इसका सर्वाधिक प्रभाव है। जो दुनिया के अन्य स्थान पर नहीं है।