कविता-तेरे जैसी कभी नहीं बन सकूंगी मैं

Hindi poem

<p>कविता-तेरे जैसी कभी नहीं बन सकूंगी मैं,कविता-तेरे जैसी कभी नहीं बन सकूंगी मैं,कविता-तेरे जैसी कभी नहीं बन सकूंगी मैं</p>
सुप्रिया शुक्ला
उसने कहा बराबरी मत करो, हम बराबर नहीं,
प्रकृति ने भी तो इसलिए की एक समान बनावट नहीं,
क्योंकि हम बराबर नहीं है
ठीक ही तो कहा तुमने, क्योंकि सिर्फ मैं ही अपने भीतर
एक निकाय को रचती हूं,
प्रसव की असहाय पीड़ा में भी
खुद को स्थिर ही रखती हूं,
मैं चुनी गई क्योंकि मैं ज्यादा सहनशील हूं,
ना ही अचल हूं तेरी तरह,
और ना ही तेरी तरह अधीर हूं,

भावुकता से मैं हूं सजी, सौम्यता रखी है अपनी सखी,
अपनों के लिए जी सकती हूं,
तो अपनों के लिए मर भी सकती हूं मैं,
सच ही कहता है तू, तेरे जैसी कहां बन सकती हूं मैं,
मुझमे तेरे जैसा अहम् कहां,
हर बात पे जो क्षतिग्रस्त हो जाए वो मन कहां,
मैं तो तेरी उन्नति से उल्लासित हो जाती हूं,
अपनी स्वेछा से तुझसे परिभाषित हो जाती हूं,
जी लंू गर अपने लिए तो निर्लज्ज निर्मोही और स्वार्थी कहलाती हूं,
सच मे तेरी बराबरी कहां कर पाती हूं,

वक्र से ये जीवन राह मेरी, फिर भी तुझे
पथ प्रदर्शन कराती हूं मैं,
मुख पे मुस्कुराहट लिए देख
हर पीड़ा छुपा जाती हूं मैं,
सच में,कहां तेरे बराबर आ पाती हूं मैं,


मैं तो समझाी तू पूरक है मेरा और मैं पूरक हूं तेरी,
हम मिलेंगे तो एक नई काया बनेगी,
समानता का तो प्रश्न ही नहीं,
तुझसे बस मान की ही अभिलाषा रहेगी,
तू व्यथित रहे या विचलित रहे,
या अपनी ही कुंठाओं में ग्रसित रहे,
सैदव ही साथ चलूंगी मैं,
और सच ही कहता है तू तेरे जैसी कभी नहीं बन सकूंगी मैं।
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