ज्ञान के साथ जीवन में चरित्र भी होना चाहिए

आचार्य आर्जवसागर महाराज ने कहा

<p>ज्ञान के साथ जीवन में चरित्र भी होना चाहिए</p>
सिवनी. लखनादौन नगर के जैन मंदिर स्थित महावीर भवन में चातुर्मास पर आचार्य आर्जवसागर महाराज ने प्रवचन में क्षेत्रीय जनों से कहा कि ध्यान का अर्थ भावना व विचार की एकाग्रता है। केवल हाथ पर हाथ रखकर, आसन जमाकर बैठने से ध्यान नहीं होता, ध्यान तो कभी भी यानी चलते-फिरते, उठते-बैठते भी किया जा सकता है, क्योंकि ध्यान का अर्थ है भावना और विचार की एकाग्रता। शुभ भावनाओं व शुभ विचारों से धर्म-ध्यान होता है। जबकि अशुभ भावों एवं बुरे विचारों से अशुभ-ध्यान होता है। केवल आसन लगाने से ध्यान नहीं होगा। इसके लिए मन पर विजय प्राप्त करना होगा।
आचार्य ने उपस्थित जनों से कहा कि बुरी भावनाओं एवं अशुभ विचारों से बचने के लिए हम एक निश्चित समय में निश्चित स्थान पर विशेष आसन में बैठकर ध्यान लगाते हैं, लेकिन मन को तत्व चिंतन में लगाना आवश्यक है, क्योंकि जिसने अपने मन को नियंत्रित कर लिया उसी ने सब कुछ पाया है। मन की स्थिरता के लिए एकत्व भावना आवश्यक है। इसमें चिंतन करना चाहिए, कि मेरी अपनी आत्मा के सिवाय संसार में अणु मात्र भी मेरा कुछ नहीं है। बैर भाव रखने वाला व्यक्ति कभी ध्यान नहीं कर सकता। ध्यान के लिए अपने मन पर विजय प्राप्त करनी होगी।
आचार्य ने बताया कि सच्चा ध्यान साधु को ही हो सकता है। मात्र ज्ञान प्राप्त करने से जीवन शोभा को प्राप्त नहीं होता। ज्ञान के साथ-साथ जीवन में चरित्र भी होना चाहिए। ज्ञान बीज की तरह है। उसमें चारित्र के पुष्प व फल भी उत्पन्न होने चाहिए। सच्चा ज्ञानी नियम से त्यागी बनता है। घर-गृहस्थी वाले लोग शून्य का ध्यान नहीं कर सकते। वे कितनी भी तरह की साधना कर लें, लेकिन उनका ध्यान शून्य तक नहीं पहुंच सकता। जब तक हमारा मोबाइल नेटवर्क से जुड़ा है, स्विच ऑन है, तो रिंग और वाइब्रेशन होता रहता है। हमें अपना मन पूर्ण स्थिर करने के लिए घर-परिवार, पद, पैसे से अपना संपर्क समाप्त कर लेना चाहिए। इसलिए ऐसा ध्यान सच्चे साधु को ही हो सकता है, गृहस्थों को नहीं। जो अपने जीवन में अत्यधिक परिगृह संचित करने का भाव रखते हैं, उन्हें मर कर नरक में जाना पड़ता है। ध्यान मोक्ष का साधन है, ध्यान के लिए निग्र्रन्थ होना जरूरी है और मन को स्थिर करना भी आवश्यक है।
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