Mother toungue day; दुनिया में बढ़ रहा हिंदी का मान, देश में सीमित हो रहा दायरा

विंध्य के साहित्यकारों ने रखा विचार, बोले-सूचना प्रौद्योगिकी और मानकीकरण के बढ़ते प्रभाव ने किया अंग्रेजी का कायल, मातृभाषा से दूर हो रही युवा पीढ़ी, घरों में नहीं होता प्रयोग

<p>Mother toungue day</p>
सतना. भाषा किसी भी क्षेत्र और समाज की परिचायक होती है। खासकर भारत जैसे विशाल व विविधता भरे देश में इसका महत्व और बढ़ जाता है लेकिन स्थितियां उसके विपरीत हैं। सूचना प्रौद्योगिकी व ग्लोबलाइजेशन के बढ़ते प्रभाव के चलते आज मातृभाषा ही नहीं हमारी राजभाषा हिंदी का दायरा भी सीमित होता जा रहा। यह बात अलग है कि भारत के व्यापक बाजार व यंग जनरेशन को देखते हुए दुनिया की अग्रणी पंक्ति में खड़े देश भी हिंदी को अपना रहे हैं लेकिन भारत के लोग उसके महत्व को नहीं समझ रहे। यह बात विंध्य के साहित्यकारों ने कही। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। लिहाजा, हर जगह गोष्ठी-संगोष्ठी व परिचर्चाएं होंगी। उन शैक्षणिक संस्थाओं में भी विद्यार्थियों को मातृभाषा का महत्व समझाया जाएगा, जहां हिंदी विषय की पढ़ाई भी अंगे्रजी माध्यम के शिक्षक कराते हैं लेकिन क्या एक दिन की परिचर्चा और संगोष्ठी से हमारी मातृभाषा समृद्ध हो पाएगी? इस पर हमारी सरकारों व शिक्षाविदों को सोचना चाहिए। आज हम अपनी लोकभाषा में गणना करना भूलते जा रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे मन व मस्तिष्क पर भी पड़ता है।
अस्मिता के लिए हो गए थे शहीद
21 फरवरी 1952 को ढाका यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तत्कालीन पाकिस्तान सरकार की भाषायी नीति का कड़ा विरोध जताते हुए अपनी मातृभाषा का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विरोध-प्रदर्शन किया था। इस पर पाकिस्तान की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी, लेकिन लगातार विरोध के बाद सरकार को बांग्ला भाषा को आधिकारिक दर्जा देना पड़ा। भाषायी आंदोलन में शहीद हुए युवाओं की स्मृति में यूनेस्को ने पहली बार 1999 में 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी।
हिंदी में अकड़ नहीं, लचीला पन
कुछ साहित्यकार कहते हैं कि बीच के कुछ वर्षों में उलझन से हिंदी भाषा अब उबर चुकी है। उसे अब हीनता नहीं बल्कि प्रतिष्ठा के रूप में देखा जाने लगा है। वह अब रोजगार की भी भाषा बन गई है। टीआरएस में हिंदी विभाग की प्राध्यापक डॉ. शिप्रा द्विवेदी ने कहा कि हिंदी को जनता एवं सोशल मीडिया से कोई समस्या नहीं है। बोलने वालों की प्रसार संख्या सर्वाधिक है। अवधेश प्रताप ङ्क्षसह विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ. दिनेश कुशवाह ने कहा, हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिले वह इसकी हकदार है। इच्छा शक्ति की कमी और राजनीति की वजह से हमारी सरकारें हिन्दी को उसका स्थान नहीं दिला सकीं। हिन्दी किसी का हक नहीं मार रही। वह पूरे देश को एक सूत्र में बांध रही है।उसे सर्वस्वीकृत एवं सामर्थवान बनाया जाना चाहिए।
अपनापन व स्वाभिमान
शा. अभियांत्रिकी महाविद्यालय के प्राध्यापक डॉ.संदीप पाण्डेय कहते हैं कि हिन्दी भाषा में अपनापन, स्वाभिमान, संस्कार, आत्म बोध, आत्म चिंतन एवं माधुर्य है। हिन्दी भाषा समाज, परिवार, राष्ट्र एवं प्रकृति से जोडऩे का अनुपम एवं अद्वितीय प्रयास करती है। हिंदी के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए संकल्प की आवश्यकता है। हिंदी में लचीला पन है। देश को बांधने की ताकत है। अनुकूलन की क्षमता है। ज्ञान किसी भाषा का मोहताज नहीं है। हिंदी के अथाह शब्द कोश को छोड़कर हम पाश्चात्य भाषाओं की ओर भागते जा रहे हैं।
मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं
मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है। दुनिया के तमाम देश अपनी मातृभाषा के बल पर ही कामयाबी के शिखर पर पहुंचे हैं और विश्व प्रतिस्पर्धा में आगे खाड़े हैं। जापान, जर्मनी, रूस व चीन इसके उदहरण हैं। हिंदी को अंग्रेजी की तुलना में कॅरियर के लिए दोयम दर्जे की भाषा बताने वाले लोग विकृति सोच के गुलाम हैं। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी है। ङ्क्षहदी को जानने-समझने वाले लोग विभिन्न देशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं इसलिए इसकी महत्ता को समझना होगा। अपनी मातृभाषा पर हम सबको गौरान्वित होना चाहिए। भारत के व्यापक बाजार को देखते हुए विश्व के सभी समृद्ध देश हिंदी की पढ़ाई को महत्व दे रहे हैं।
डॉ. सत्येन्द्र शर्मा, साहित्यकार व शिक्षाविद्
सूचना प्रौद्योगिकी ने किया कमजोर
देश में तमाम सांस्कृतिक आक्रमण हुए पर विविधताओं से भरी भारतीय सभ्यता प्रभावित नहीं हुई। सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभाव ने इसे काफी कमजोर किया है। खासकर, भाषा के क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में व्यापक बदलाव देखने को मिला। हिंदी हो या फिर इसकी 18 बोलियां, मानकीकरण के बाद से इनका दायरा सीमित होता जा रहा। यही हाल हमारी संस्कृत का हुआ। इसके लिए कोई दूसरा नहीं बल्कि हम-आप जिम्मेदार हैं। देश में अंग्रेजी के जानकार 3 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं लेकिन इसका प्रभाव दिनों दिन बढ़ता जा रहा। कुछ लोग तो रौब दिखाने के लिए अंग्रेजी बोलते हैं। भले ही उसका मतलब समझ आए या नहीं। दु:ख होता है कि इतने साल बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया जा सका। हिटलर ने राष्ट्रभाषा का उपयोग न करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों को १० दिन का अल्टीमेटम दिया था। नेहरूजी ने हिंदी का शतप्रतिशत उपयोग करने के लिए १० साल का मौका दिया था, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। आज भी ज्यादातर सरकारी पत्राचार अंगे्रजी में होते हैं। सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट में तो पूरी प्रक्रिया अंग्रेजी में होती है। इस पर संशोधन जरूरी है, क्योंकि हम अपने भाव मातृभाषा में जितने प्रभावी तरीके से प्रकट कर सकेंगे उतना दूसरी भाषा में संभव नहीं है।
डॉ. प्रणय, साहित्यकार
युवा पीढ़ी नहीं गंभीर
अगर हम अपनी मातृभाषा को बचा लेंगे तो हिंदी और भारतीय संस्कृति को भी बचा लेंगे। हां, आज की युवा पीढ़ी इस पर गंभीर नहीं है। हमारे घरोंं में मातृभाषा में ही संवाद हुआ करता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। यही वजह है कि युवा मातृभाषा से कटते जा रहे हैं। उदहरण के तौर सिंधी परिवारों की बात करें तो उनके बच्चे हिंदी व अंग्रेजी फर्राटे के साथ बोलते हैं लेकिन सिंधी में कम ही बात करते मिलेंगे। यही हाल बुंदेली व बघेली का हुआ है। नजीराबाद में तीन चीनी परिवार रहते हैं, लेकिन उनकी वर्तमान पीढ़ी चीनी भाषा पूरी तरह से भूल चुकी है। यानी, हमारी मातृभाषाएं अब संगृह का विषय बनती जा रही हैं। इनके समृद्धि के लिए प्रयास नहीं किए तो वो दिन दूर नहीं जब युवा पीढ़ी मातृभाषा का महत्व जानने समझने के लिए संग्रहालयों में जाने लगेगी।
चिंतामणि मिश्रा, वरिष्ठ साहित्यकार
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