जीवन को यूं बनाएं बेहतर
सभी चीजों के तो साध्य और साधन के संबंध हो सकते हैं लेकिन जीवन का नहीं। जीवन से बड़ा और कुछ भी नहीं है। जीवन ही अपनी पूर्णता में परमात्मा है।
इंद्रीय और भोग
इन्द्रियों के अपने-अपने भोग हैं। जब इन्द्रियां विषयों की तरफ जाकर सुख का अनुभव करती हैं और बार-बार उसी सुख को पाना चाहती हैं, वही भोग कहलाता है। इन इन्द्रियों से मिलने वाले भोग की लालसा इतनी ज्यादा होती है कि इंसान इन भोगों को ही ढूंढता रहता है। उम्र बीत जाती है फिर भी मन भोगों की तरफ ही भागता रहता है। भोग शरीर की ऊर्जा को खा जाता है। इंसान खत्म हो जाता है लेकिन भोग कभी खत्म नहीं होते।
बंधन के प्रकार
बंधन तीन प्रकार के माने गए हैं- प्राकृत, वैचारिक और दाक्षणिक बंधन। सत, रज, तम गुणों वाली प्रकृति को आत्मा समझकर उसकी उपासना की जाती है तो उसे प्राकृत बंधन कहा गया है। वैचारिक बंधन अर्थात जब प्रकृति के विकार अर्थात् इन्द्रियादि तत्त्वों को आत्मा समझकर उपासना की जाती है व अन्त में इन विकारों में लीन हो जाते हैं। दाक्षणिक बंधन उन्हें प्राप्त होता है जो आत्मा को नहीं जानते हैं और यज्ञ में गौ,सुवर्णादि दान देते हैं।