विनय की चुम्बकीय शक्ति से सभी गुण खिंचे आते हैं

जहां धर्म है, वहां सब कुछ ठीक है, ऐसी आस्था प्राय: सभी के मन में होती है

<p>Gentleness</p>
जहां धर्म है, वहां सब कुछ ठीक है, ऐसी आस्था प्राय: सभी के मन में होती है। यह भी माना जाता है कि जब-जब धर्म पर संकट होता है तब-तब न केवल अधर्म का बोलबाला होता है अपितु व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अस्मिता पर भी संकट खड़ा होता है। इसलिए गीता में कृष्ण कहते हैं कि जब-जब अधर्म बढ़ता है, पापियों एवं अधर्मियों के विनाश के लिए मुझे संसार में आना पड़ता है। कृष्ण यह भी कहते हैं कि धर्म महान है किन्तु धर्म की ओर चरणन्यास का आधार जो है, वह विनय है अर्थात् विनय वह सदगुण है जो व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर ले जाता है। विनय की शक्ति से व्यक्ति हर समय स्वस्थ एवं तत्पर रहता है। आलस्य या प्रमाद से वह कोसों दूर रहता है। शारीरिक एवं मानसिक रूग्णता भी विनय के कारण दूरी बनाए रखती है, क्योंकि विनय से धर्म की ओर गति होती है इसीलिए विनय को गुणों का भूषण कहा गया है।

जिसका व्यक्तित्व सरल, उसका स्वभाव तरल
विनय आत्मा का स्वभाव है, विभाव नहीं। स्वभाव सहज होता है। हर समय के लिए होता है। विभाव तो आते-जाते रहते हैं। यह बात अलग है कि विभाव उस बादल की तरह है जो सूर्य को ढक लेता है किन्तु जैसे बादल सूर्य के अस्तित्व को हानि नहीं पहुंचा सकता वैसे ही आत्मा का विभाव भी कभी आत्मा के धर्म विनय को समाप्त नहीं कर सकता है। कू्ररता के कारण कुछ क्षण के लिए विनय आवृत भले हो जाए लेकिन कभी इसके स्वरूप की हानि नहीं हो सकती। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि विनय के स्थान पर कू्ररता आत्मा का स्वभाव बन जाए। भागवत में सूतजी कहते है कि विनय से बड़ा धर्म नहीं है क्योंकि विनय सबको झुकना सिखाता है। जैसे फलों से लदे वृक्ष स्वत: झुक जाते हैं वैसे ही विनय के कारण व्यक्ति का स्वभाव तरल रहता है, वह कभी आक्रोश में नहीं होता है। वह सदैव सहज रहता है। सहजता को सबसे बड़ा गुण भी माना गया है। जो जितना सहज होगा उतना ही आगे बढ़ता जाएगा।

समता गुण बनाता है धैर्यवान
विनय में मानों चुम्बकीय शक्ति है जो सभी गुणों को अपनी ओर खींच लेता है। महाभारत के युद्ध में अधर्मी दुर्योधन की मृत्यु होने के बाद जब कृष्ण कहते हैं कि युधिष्ठिर हस्तिनापुर में प्रवेश करो और राज्य का सुख भोगो, तब विनयी युधिष्ठिर के मुख से यही शब्द निकला कि अपनों को खोकर पाए राज्य का कैसा सुख? विनय हर परिस्थिति में सम रहना सिखाता है और इस समता गुण से व्यक्ति धैर्यवान बनता है और धैर्यवान व्यक्ति हर परिस्थिति में श्रम करता है। श्रम करने वाला कभी आलसी नहीं हो सकता। वह सदैव जागरूक एवं सावधान रहता है।

अहंकार हटाता है विनय
अहंकार को जीवन के लिए अभिशाप माना गया है। रावण जैसे विद्वान एवं प्रतापी राजा का पतन यदि किसी कारण से हुआ तो वह अहंकार ही था। यह अहंकार का ही दुष्परिणाम था। अहंकार के मद में चूर दुर्योधन ने भी भाइयों के राज्य को हड़पने की कोशिश की और अहंकार के वशीभूत होकर आधे राज्य को देने की बात तो दूर सूई की नोक के बराबर जमीन नहीं दूंगा, ऐसा कहने वाले दुर्योधन का भी वही हाल हुआ जो रावण का हुआ था। रावण के बाद लक्ष्मण में अहंकार का आभास होते ही राम ने उन्हें विनय का पाठ पढ़ाया।

आत्मशक्ति करता जागृत
एक बार ऋग्वेद का एक श्लोक दयानंद को याद नहीं रहा। उन्होंने गुरु विरजानन्दजी को बताने का आग्रह किया। गुरु ने कहा,’यह तुम्हारा एकाग्रध्यान है। जाओ यमुना में डूब मरो। जब तक याद न आए मेरे पास नहीं आना। वे सचमुच यमुना में कूदने के लिए किनारे के वृक्ष पर चढ़ गए। यमुना में कूदने के लिए जैसे ही मन को एकाग्र किया और वह ऋचा याद आ गई। उन्होंने गुरुजी को श्लोक सुनाकर कहा, धन्य हैं आप, आपने मेरी आत्मशक्ति को जागृत कर दिया। गुरु बोले,’तुम्हारे विनय ने तुम्हारी आत्मशक्ति का जागरण किया है।’

ब्रह्मानुभूति का श्रेष्ठ मार्ग
कबीरदासजी भी विनयरहित होने की तुलना खजूर से करते है जिससे न पक्षी को छाया मिलती है और फल भी दूर लगते हैं। शंकराचार्य ने भी अद्वैत की अनुभूति का माध्यम विनय को माना और मां के प्रति यह विनयभाव ही था जिसके कारण एक संन्यासी होते हुए भी इन्होंने मां का अन्तिम संस्कार किया। विनय को पाकर ही सभी गुण फलते-फूलते हैं। विनय सम्पूर्णता का प्रतीक है, कमजोरी का नहीं पौरुष का प्रतीक है, परावलम्बन का नहीं स्वावलम्बन का प्रतीक है। कहना श्रेयस्कर होगा कि विनय ब्रह्मानुभूति का श्रेष्ठ मार्ग है।
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