व्यक्ति समता और क्षमता का विकास करे, यही साधना का मार्ग है। इस मार्ग पर चलकर और जीवन में साधना को समाहित करके ही जीवन का उत्थान संभव है।
मन के विकार :
दूसरों को दोष देने के बजाए स्वयं के अंदर ही उन बुराइयों का दमन करने का प्रयास करने चाहिए, जिसकी उत्पत्ति से घटनाएं घटती हैं। हम देखते हैं कि अपने परिवार, समाज में हम छोटी-मोटी बातों से क्रोधित हो जाते हैं। भगवान ने गीता में अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहा कि हे अर्जुन मनुष्य के पांच विकार ही मनुष्य के असली शत्रु हैं। मनुष्य को सबसे पहले अपने अन्दर के छिपे उस शत्रु को मारने का प्रयास करना चाहिए।
जीवनकाल :
निर्माण और विनाश दोनों ही एक दूसरे से प्रगाढ़ रूप से संबद्ध है। जिस तरह बीज गले बिना वृक्ष नहीं होता और फल टूटे बिना बीज नहीं बनता, उसी तरह से नया जीवन धारण तब ही होता है जब किसी की मृत्यु होती है। मृत्यु भी तब ही होती है जब जीवन नष्ट होता है। जीवनकाल में सुख, शान्ति, लाभ, भोग के अवसर आते रहते हैं। वैसे ही कर्म मार्गों के अनुसार रोग, हानि, संकट, क्लेश और मृत्यु के अवसर आना भी स्वाभाविक ही है।