मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने देशमुख पर ये गंभीर आरोप लगाए थे कि उन्होंने सचिन वाझे सहित कई पुलिस अफसरों को रेस्टोरेंट और बार से 100 करोड़ रुपए की उगाही का टारगेट दिया था। इसके अलावा देशमुख पर ट्रांसफर-पोस्टिंग में भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। हाईकोर्ट की टिप्पणी थी- चूंकि देशमुख गृहमंत्री हैं, इसलिए पुलिस निष्पक्ष तफ्तीश नहीं कर सकती। इस टिप्पणी के बाद देशमुख के पास कोई चारा नहीं था। सवाल यही है कि क्या हमारे राजनेताओं की यह नैतिकता अदालतों के निर्देश पर ही जागती है? क्या ऐसे आरोप लगते ही इस्तीफा नहीं दिया जाना चाहिए? और सवाल यह भी कि हर किस्म के भ्रष्टाचार के मामलों की जो जांच स्वत: ही होनी चाहिए, उसके लिए भी अदालतों को बीच में क्यों आना पड़ता है? कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी पिछले दिनों ही ऑपरेशन लोटस केस में मुख्यमंत्री बीएस येडियुरप्पा की भूमिका की जांच की अनुमति दी है।
चिंता यह भी है कि ऐसे मामले लंबे समय तक एक अदालत से दूसरी अदालत तक ही झूलते रहते हैं। बहरहाल, देशमुख पर लगे आरोपों में कितना दम है, यह तो सीबीआइ को तय करना है, लेकिन इस प्रकरण ने न केवल महाराष्ट्र, बल्कि देश भर में राजनेताओं और अफसरशाही के उस चिंताजनक गठजोड़ की ओर इशारा किया है, जिसमें भ्रष्टाचार का सागर हिलोरें लेता दिखता है। राजनेताओं के इशारे पर उगाही का यह अकेला मामला नहीं है। अफसरशाही में, चाहे वह पुलिस से जुड़ी हो या प्रशासन से, जब भी रिश्वतखोरी के बड़े मामले सामने आए हैं, तब उनमें गाहे-बगाहे राजनेताओं के नाम भी सामने आए हैं। ऐसे प्रकरणों में शुरुआती कार्रवाई नौकरशाहों पर ही होती है और उनमें भी अधिकांश अपने राजनीतिक आकाओं के वरदहस्त से बच निकलते हैं।
यह सही है कि ‘महावसूली’ का यह प्रकरण महाराष्ट्र के राजनीतिक घमासान के चलते भी उजागर हुआ है। सवाल यह भी अहम है कि परमबीर सिंह के पुलिस कमिश्नर रहते हुए क्या यह भ्रष्टाचार उनकी नजर में नहीं था? और, यदि था तो चुप्पी के क्या मायने थे? ऐसे विवादों के थमने की उम्मीद तब तक करना बेमानी है, जब तक कि अफसर, राजनेता और राजनीतिक दल एक-दूसरे के हितों को देख काम करेंगे।