ग्रामीण योजनाओं में देना होगा काम

लोकडाउन के दौर में पलायन कर अपने घरों को लौटे प्रवासी श्रमिकों को मनरेगा, प्रधानमंत्री सड़क योजना, खादी एवं ग्रामोद्योग योजना और अन्य ग्रामीण योजनाओं में काम मिलने की आस है। सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि इनके भरण पोषण का बंदोबस्त करे।

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उमेश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
सभी चाहते हैं कि कोरोना की भयावहता की बीच पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था में कोई नई राह बने और जो चमक भुजी सी है वह फिर दिखाई दे। लेकिन इसके लिए अभी तक कोई ठोस योजना सामने नहीं आई है। दिन प्रति दिन बिगड़ती अर्थव्यवस्था पर हर तरफ सिर्फ चिंता के स्वर ही सुनाई देते हैं। सरकार ने भले ही 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का मई में ही एलान कर दिया था लेकिन उस भारी भरकम पैकेज के बावजूद उद्योग जगत में कोई उत्साह नज़र नहीं आता। इस इमदाद से उद्यमियों के चेहरे खिले नहीं। अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर मौजूदा हालात की जांच पड़ताल की जाए तो उद्योग क्षेत्र की तस्वीर धुंधली दिखाई दे रही है; बदरंगी तस्वीर में उसका अपाहिज भविष्य झांकता नज़र आ रहा है।

सरकारी पैकेज की सौगात मिलने से पहले उद्योग जगत, खासतौर से एमएसएमई क्षेत्र धन के अभाव की विवशता ज़ाहिर कर रहा था। छोटे-बड़े सभी कारोबारियों और उद्योगपतियों से यही सुझाव आ रहे थे कि धन मिल जाए तो धंधा चल जाए और धंधा चलने से ही अर्थव्यवस्था में जान आ पाएगी। उद्योग जगत ने जितना धन मांगा, उससे ज़्यादा मिला फिर भी ढाक के वही तीन पात; अर्थव्यवस्था आज भी शिथिल है और लगातार उसकी हालत बिगड़ रही है। निकट भविष्य में कोई चमत्कार होने के आसार भी नहीं हैं।
उद्योग चलाने के लिए पूंजी बहुत ज़रूरी है। मशीनों के लिए लुब्रीकेंट जो काम करता है वही काम पूंजी उद्योगों के लिए करती है। लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि अकेली पूंजी से उद्योग चल जाएंगे। उद्योग चलाने के लिए कई फैक्टर काम करते हैं- कच्चे माल की उपलब्धता, मशीनें चलाने के लिए मज़दूर, बिजली, पानी, परिवहन और माल ढुलाई के साधन, तैयार माल बेचने के लिए बाज़ार। इन सभी घटकों से ऊपर है ग्राहक। बाजार में ग्राहक होना चाहिए वरना उद्योगों में बड़े जतन से तैयार माल दुकानों और शो रूम्स की शोभा बढ़ाता रहेगा। माल नहीं बिकेगा तो उत्पादन बंद हो जाएगा; उत्पादन ही नहीं होगा तो उद्यमी मज़दूरों को खाली बैठा कर तो दिहाड़ी देगा नहीं; उसे मजबूरन छंटनी करनी पड़ेगी। कच्चा माल बेचने वाले और माल ढोने वाले भी हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहेंगे। उनके कर्मचारी भी बेरोजगार हो जाएंगे।
लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था ऐसे भंवर में फंस गई है जिसका कोई निदान नहीं दिख रहा है। किसी को समझ नहीं आ रहा कि अर्थव्यवस्था उठाने के लिए शुरुआत कैसे और किस छोर से की जाए। अर्थव्यवस्था की धड़कन समझने वाले ज्ञानियों को यह बात समझ आ गई है कि उत्पादन शुरू करने से समस्या का समाधान नहीं होगा। वैसे भी उत्पादन शुरू करना आसान नहीं है। उद्यमी खासतौर से सूक्ष्म, लघु और मध्यम क्षेत्र के उद्यमी (एमएसएमई) पहाड़-सी मुसीबतें पार कर उत्पादन किस आस पर शुरू करें।
मजदूर मजबूरी का बोझ ढोते हुए अपने घरों को लौट गए हैं। अकेले एमएसएमई क्षेत्र के करीब सवा ग्यारह करोड़ मज़दूर अपना काम छोड़ कर घरों में बैठे हैं। दिल दहला देने वाली यातनाएं सह कर घरों को लौटे मज़दूर आसानी से शहरों का रुख नहीं करेंगे। हर कोई अब अपने परिवार के साथ रह कर गाँव में दो जून की रोटी का जुगाड़ करने की जुगत में है। सभी को मनरेगा, प्रधानमंत्री सड़क योजना, खादी एवं ग्रामोद्योग योजना और अन्य ग्रामीण योजनाओं में काम मिलने की आस है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की भी ज़िम्मेदारी है कि उनके भरण पोषण का बंदोबस्त करे। भूख से एक भी मौत हो गई तो अंतरराष्ट्रीय मंच पर सरकार को जवाब देना भारी हो जाएगा। कितनी पेचीदा स्थिति बन गई है? शहरों में रोजगार के अवसर हैं लेकिन मज़दूर नहीं आना चाहते और जहां रोजगार के अवसर बहुत कम हैं वहां से मज़दूर हिलना नहीं चाहते। मज़दूरों के दिमाग में कोरोना का भय जब तक नहीं निकलेगा और तब तक वह अपने परिवार को नहीं छोड़ेगा। दक्षिण भारत की रियल एस्टेट कंपनियां मज़दूरों को हवाई जहाज़ से बुला रही हैं फिर भी मज़दूर आसानी काम पर नहीं जा रहे। कई कंपनियां अपने निजी वाहनों से मज़दूरों को लाने की कोशिश कर रही हैं; खाना और रहने की व्यवस्था भी कर रही हैं फिर भी मज़दूर अपने परिवार से दूर नहीं जाना चाहता।
इन हालात में उद्यमी सरकार से कर्ज लेकर, बमुश्किल मज़दूर जुटा कर उत्पादन क्यों शुरू करेगा? देश में करीब 14 करोड़ औद्योगिक मज़दूर बेरोजगार हो गए हैं।
वे खाने का जुगाड़ मुश्किल से कर पा रहे हैं। व्यापारी भी परेशान हैं। दुकानों पर महीनों से ग्राहक नहीं है। उन्होंने अपने कर्मचारियों की छुट्टी कर दी है। सेवा क्षेत्र में भी काम नहीं है। इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर और ऐसा ही काम करने वाले सभी लोग लंबे समय से घरों में बैठे है; दो वक्त की रोटी के लाले पड़े हुए हैं।
इन परिस्थितियों में कोई दुकानदार ग्राहकों के आने की आस कैसे लगा सकता है। इन दिनों सिर्फ खाद्य पदार्थ और दवा की दुकानों पर ही ग्राहक नज़र आ रहे हैं।
दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है। सभी देश भारत जैसे हालात से जूझ रहे है। कहीं भी बाजारों में मांग नहीं है इसलिए निर्यात के जरिये माल बेचने की उम्मीदों पर भी विराम लग गया। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था 2020-21 में 5.2 प्रतिशत सिकुड़ जाएगी। जाहिर है अब हर देश अपने बूते अपनी अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने का प्रयास करेगा।
भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास स्पष्ट कह चुके हैं कि चालू वित्त वर्ष 2020-21 में विकास दर नेगेटिव रहेगी। वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में मामूली सुधार के आसार बन सकते हैं। यह निराशाजनक तस्वीर सभी को सोचने के लिए मजबूर करती है कि आखिर कौन-सी दवा दी जाए कि बीमार अर्थव्यवस्था आईसीयू से बाहर आ जाए।
अर्थव्यवस्था की नब्ज पहचानने वाले सुधीजनों का एक ही सुझाव है कि पहले ग्राहक पैदा किए जाएं। ग्राहकों के बिना उत्पादन करना बेमानी होगा। उद्यमियों को उम्मीद का चिराग तभी दिखा सकते हैं जब उनका माल खरीदने वाले ग्राहक बाज़ार में उपलब्ध होंगे। सुझाव माकूल है लेकिन इस पर अमल बहुत मुश्किल है। विश्व प्रसिद्ध ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कैन्स ने विश्व मंदी के समय ऐसा ही सुझाव दिया था। यह भीषण मंदी 1929 से 1939 तक रही थी। विश्व के आधुनिक इतिहास में यह सबसे बड़ी मंदी थी। उन्होंने कहा था कि लोगों के पास क्रय शक्ति होगी तभी वे ग्राहक बन कर बाज़ार में जाएंगे। क्रय शक्ति देने के लिए रोजगार देना ज़रूरी है। कैन्स ने तो यहां तक कहा कि यदि रोजगार के अवसर नहीं हैं तो सरकार भले ही गड्ढे खुदवाए और फिर वही गड्ढे भरवाए। मक़सद काम देकर क्रय शक्ति बढ़ाना है।
सरकार रोजगार देना भी चाहे तो उसके सामने बड़ी चुनौती यह होगी कि मनरेगा में काम मांगने के लिए कतार में खड़े करोड़ों मज़दूरों को किस प्रोजेक्ट में काम दे। अभी तक करीब साढ़े छह करोड़ मज़दूर मनरेगा में कार्डधारी थे। अब यह संख्या दोगुनी या ढाई गुणा तक हो सकती है। इनके लिए काम कहाँ और कैसे जुटाया जाएगा, यह अहम सवाल है। कोई प्रोजेक्ट तो होना चाहिए जहां इतनी बड़ी श्रमशक्ति को काम दिया जा सके। इस सवाल से फिर कंटीली राह सामने दिख रही है जिस पर दूर दूर मंजिल नज़र नहीं आ रही है।

shailendra tiwari

राजनीति, देश-दुनिया, पॉलिसी प्लानिंग, ढांचागत विकास, साहित्य और लेखन में गहरी रुचि। पत्रकारिता में 20 साल से सक्रिय। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली राज्य में काम किया। वर्तमान में भोपाल में पदस्थापित और स्पॉटलाइट एडिटर एवं डिजिटल हेड मध्यप्रदेश की जिम्मेदारी।

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