क्या उमर अब्दुल्ला बनेंगे जम्मू-कश्मीर के सीएम?

धीरे-धीरे ही सही पर जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने के प्रयास आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे ही प्रयासों पर एक नजर…

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नेशनल कांफ्रेस के नेता व लोकसभा सांसद फारूक अब्दुल्ला को करीब सात महीनों की गिरफ्तारी के बाद केंद्र सरकार द्वारा अचानक रिहा करने के फैसले ने सबको चौका दिया है। खासकर तब जबकि रिहाई के दो दिन पहले ही सरकार ने उन पर जनसुरक्षा कानून (पीएसए) छह माह के लिए बढ़ाने का फैसला किया था। दूसरी तरफ, भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने भी ऐसा कह कर चकित किया कि जम्मू-कश्मीर में जब भी चुनाव होगा, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला होंगे।

दुलत की ‘भविष्यवाणी’ का इसलिए खास मतलब है क्योंकि उन्होंने पिछली 12 फरवरी को फारूक से मुलाकात की थी और उनकी रिहाई का रास्ता साफ होने में इस मुलाकात को ही महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। इस ‘व्यक्तिगत मुलाकात’ के बारे में चर्चा करते हुए ख्यात पत्रकार करण थापर के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया कि गृहमंत्रालय ने इसके लिए रास्ता बनाया।

जम्मू-कश्मीर को लेकर तीसरी बात यह हुई कि राज्य की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) से अलग होकर पूर्व मंत्री अल्ताफ बुखारी ने ‘अपनी पार्टी’ बनाई है, जिसके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को बैठक की। बैठक में मोदी ने कहा कि पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए वह सभी दलों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं।

राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने की दिशा में अचानक तेजी आना अच्छा संकेत है। लेकिन सबकी नजर इस पर टिकी है कि आगे की बात आखिर कैसे बनेगी? फारूक अब्दुल्ला का कोई राजनीतिक बयान सामने नहीं आना इस बात का संकेत समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार के साथ नई तरह की संभावनाओं के द्वार वह बंद नहीं करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो नई समझ के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। अभी उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा है कि गिरफ्तार नेताओं की रिहाई के लिए सभी दलों को एकजुट होना होगा।

इसमें कोई शक नहीं कि बदली हुई परिस्थिति में गतिरोध तोड़ना और राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करना तब तक संभव नहीं है जब तक स्थानीय राजनीतिक दलों/ नेताओं को इसमें शामिल न किया जाए। इसीलिए केंद्र सरकार भी राज्य के राजनीतिक दलों के साथ नए सिरे से समझ विकसित करने का प्रयास करती प्रतीत हो रही है।

पीडीपी के एक गुट के साथ तो भाजपा ने एक तरह की अंडरस्टैंडिंग उसी समय बना ली थी जब दोनों पार्टियां एक साथ सरकार में थीं। बुखारी भी उन्हीं में थे। हालांकि, 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी किए जाने के बाद प्रायः सभी दलों के नेताओं को गिरफ्तार किया गया। अपनी पार्टी दरअसल ऐसे नेताओं की पार्टी है जो बॉन्ड भरकर गिरफ्तारी से बाहर आए हैं। साफ है कि उनकी केंद्र के साथ एक समझ बन चुकी है।

फारूक अब्दुल्ला के प्रति नरमी दिखाकर केंद्र की मोदी सरकार एक तरह से इतिहास दोहरा रही है। नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक और फारूक के पिता शेख अब्दुल्ला को 1953 में तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू की केंद्र सरकार ने करीब 11 साल तक जेल में रखा था। बाद में ‘कश्मीर में साजिश करने’ के सभी आरोप हटाकर उन्हें रिहा कर दिया गया था। शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री नेहरू के करीबी समझे जाते थे। तब नेहरू ने रिहाई के बाद शेख का इस्तेमाल पाकिस्तान के साथ कश्मीर मुद्दे का समाधान खोजने के लिए किया था। बात आगे बढ़ रही थी पर नेहरू की मौत के कारण सिरे नहीं चढ़ सकी।

अब सवाल यह है कि क्या वर्तमान मोदी सरकार रिहाई के बाद फारूक अब्दुल्ला का भी वैसा ही इस्तेमाल करते हुए राज्य के अन्य दलों, खासकर पीडीपी, से बातचीत शुरू करने का कोई दरवाजा खोलना चाहती है? राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद तो उनसे मुलाकात भी कर चुके हैं। फारूक अगले कुछ दिनों में दिल्ली में होंगे। तब उनकी गतिविधियों और बयानों से स्थिति और स्पष्ट होगी।

नेशनल कांफ्रेंस ऐसी पार्टी है जिसकी पहुंच पूरे राज्य में है और फारूक वहां के ‘सबसे बड़े’ नेता हैं। जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, उन्हें उप-राष्ट्रपति बनाने और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाने पर विचार किया गया था। हालांकि, शिवसेना के विरोध के कारण ऐसा हो नहीं सका, पर हमेशा ही अब्दुल्ला परिवार के साथ केंद्र सरकार (चाहे किसी दल की हो) अन्य नेताओं के मुकाबले ज्यादा सहज रही है। हो सकता है मोदी सरकार पुराने रिश्तों को फिर से टटोल रही हो। आखिर फारूक अब्दुल्ला की अचानक रिहाई का कोई तो राज जरूर है।
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