शांति के साथ प्रचार भी हुआ, मतदान भी और नतीजे भी। फिर प. बंगाल में ऐसा खून-खराबा क्यों? इसका जवाब किसी के पास नहीं। वामपंथी दलों की सरकार के दौर में भी प. बंगाल बदले की राजनीति का गवाह रहा है। राज्य में सत्ता बदलने के बावजूद राजनीतिक हिंसा में कमी नहीं आना तमाम राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा करता है। कार्यकर्ताओं के बीच छिटपुट झड़पें होना अलग बात है, लेकिन प. बंगाल में जिस तरह प्रायोजित हिंसा का दौर चल रहा है, वह चिंताजनक है।
चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद राज्य से लगातार शर्मसार करने वाली तस्वीरों का आना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है। सवाल यह कि राजनीतिक हिंसा को रोकने की दिशा में सरकारें और राजनीतिक दल संवेदनशील क्यों नहीं हैं? ऐसे मुद्दे पर कभी कोई सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं होती? हिंसा में शामिल अराजक तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती? राजनीतिक दल आपराधिक गतिविधियों में शामिल कार्यकर्ताओं को आखिर तवज्जो क्यों देते हैं? सब जानते हैं कि लोकतंत्र में हिंसा के दम पर मतदाताओं को अपने बस में नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके हिंसा लगातार बढ़ रही है।
देश में अनेक ऐसे राज्य हैं, जहां चुनावी राजनीति सामान्य तरीके से चलती है। होना भी यही चाहिए। लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है। आश्चर्य तब होता है, जब राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व ऐसे मामलों में राजनीतिक बयानबाजी से ऊपर उठने का साहस नहीं दिखाता। दुनिया के विभिन्न देशों में चुनाव होते हैं, लेकिन एकाध को छोड़कर कहीं ऐसी हिंसा नहीं होती। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दलों के साथ चुनाव आयोग भी इस मामले में गंभीर बने। बयानों तक सीमित नहीं रहे। हिंसा रोकने के लिए सख्त कानून बनाया जाए।