आर्ट एंड कल्चर : क्या बड़े पर्दे के जादू पर पर्दा गिर चुका है

कोरोना-मध्यांतर दरअसल फिल्मकारों के लिए आत्मावलोकन का दौर होना चाहिए।

<p>आर्ट एंड कल्चर : क्या बड़े पर्दे के जादू पर पर्दा गिर चुका है</p>

सुशील गोस्वामी, सदस्य, सीबीएफसी

फरहान की ‘तूफान’ की रिलीज कोरोनाजनित लॉकडाउन और अन-लॉकिंग के संधिकाल में हुई है। इसे डील की मजबूरी कहें या ओटीटी-प्रेम कि फरहान वेब-रिलीज के पक्ष में बयान देते नजर आए व भारत ने एक और नई फिल्म ‘घर वाले पर्दे’ पर देखी।

समय के दो टुकड़ों पर दृष्टिपात करते हैं। एकल, पुराने, बीड़ी से गंधाते कूलर-कूलित सिनेमा हॉल में ‘अमर-अकबर-ऐंथॉनी’ लगी है। शो शुरू होने को है। सिनेमा हॉल के मैनेजर लॉबी से गुजरे हैं और सीढिय़ां उतरते हुए बमुश्किल किसी एकाध को इंसान का दर्जा दिया है व उसका भाग्योदय करते हुए नन्ही पर्ची में टिकट का पैगाम लिख दिया है। उधर, संकरी टिकट खिड़की वाली गली में क्षमता से तीन गुनी लाइन लग चुकी है और खिड़की के एक जरा-से छिद्र में कई हाथ फंसे पड़े हैं तो खिड़की से कुछ सौ मीटर की दूरी पर टिकट ब्लैक होना भी शुरू हो चुके हैं। यह वह वक्त है जब कोई भी नई बड़ी पिक्चर जादू होती थी और बड़े हीरो की फिल्म का टिकट बाबू भी हीरो होता था। आम आदमी की भी दो श्रेणियां हो जाती थीं – फिल्म देख चुका आदमी व फिल्म देखने की जुगत में लगा आदमी।

दौर बदला। टीवी, फिर इंटरनेट क्रांति के साथ वेब की दुनिया नुमाया हुई। टिकटों की ऑनलाइन बुकिंग का युग आया व टिकट खिड़की के युद्ध ढुलमुल हो गए। सिनेमाहॉल प्रबंधकों के दम्भ कुंद हो चले। दर्शकों के हुजूम अच्छी फिल्मों की परिभाषा गढऩे लगे। और फिर हुआ कोरोना का इंटरवल! पिछले लगभग पंद्रह महीनों से सिनेमा हॉल में सिनेमा नहीं है। जगमग अतीत को याद करते वहां के जलपान काउंटरों में समोसों के दाग-भर हैं। बताइए, अभी बड़े पर्दे के जादू को क्या कोई पीढ़ी बेतरह मिस कर रही है? क्या सितारों ने अपनी चमक को और कमर्शियल फिल्मों ने अपने जादू को हमेशा के लिए खो दिया है? क्या वक्त ने करवट ले ली है? युवा पीढ़ी से बात की गई। थोड़े-से ही ऐसे मिले जो बड़ी हॉलीवुड फिल्मों के बड़े पर्दे पर न आने से जरा-जरा दु:खी दिखे। ‘लक्ष्मी बम’, ‘राधे’ आदि से जले दर्शक छोटे पर्दे पर ‘शेरनी’ देख खुश हैं। पर क्योंकि दशकों से रगों में दौड़ सिनेमा मनुष्य प्रजाति पर असर छोड़ चुका है, सिनेमा घरों में रौनक लौट सकती है। यकीनन यह उन्हीं फिल्मों से सम्भव होगा जिनमें कंटेंट, ट्रीटमेंट, अभिनय, संगीत व निर्देशकीय कौशल की ताकत होगी। कोरोना-मध्यांतर दरअसल फिल्मकारों के लिए आत्मावलोकन का दौर होना चाहिए, सिनेमा के मुरीदों के लिए बेहतर की एक बेहतरीन सम्भावना भी।

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