संसद को जगाओ

देश में तंत्र तीन-तेरह हो चुका है। केन्द्र और राज्यों के बीच सिर्फ राजनीति अथवा आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं। राजस्थान में तो सरकारी अस्पतालों के वेंटिलेटर्स निजी अस्पतालों में किराए पर देने के आदेश हो गए ताकि प्रभावशाली लोग भी धंधा कर सकें। पूरा देश बिखरा पड़ा है। एकता-अखण्डता के नारे दफन हो गए। ‘डिजिटल इण्डिया’ व ‘आत्म निर्भर’ का नारा कोरोना के आगे घुटने टेक चुका। सरकारों को छोड़, सारा देश जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा है।

<p>गुलाब कोठारी</p>

गुलाब कोठारी

आज देश ठहर गया है। जिन्दगी ठहर गई। बस मौत दहाड़ रही है। विश्व, देश के क्रन्दन को सुन रहा है। चारों ओर देश का अपमान हो रहा है किन्तु सत्ता की केन्द्रीभूत अनुभूति लुप्त है। या तो यमराज प्रसन्न है, या फिर कार्यपालिका जिसके हाथ में कोरोना नियंत्रण की कमान है। मौत के सौदागर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जनता की त्राहि-त्राहि का उत्तर किसी भी दिशा से नहीं आता। पिछले एक साल में लाखों लोग मर गए। किसे फर्क पड़ा? सत्ता और धन की होड़ चरम पर है। क्रिकेट, कुंभ, चुनावों का आतिशी प्रचार भी चालू रहा। क्या यह सब मौत का सोचा-समझा फरमान नहीं था? आज सब अचानक गूंगे हो गए। जनता मरने को मजबूर है। जनप्रतिनिधि भी बहती गंगा में हाथ धो रहे होंगे।

देश में तंत्र तीन-तेरह हो चुका है। केन्द्र और राज्यों के बीच सिर्फ राजनीति अथवा आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं। पहले तो दवाइयों और अस्पतालों, वैक्सीन और ऑक्सीजन आपूर्ति पर ही राजनीति होती थी। अब तो लाशों तक पर होने लगी। राजा हरिश्चन्द्र श्मशानों में पहरा देने लगे। राजस्थान में तो सरकारी अस्पतालों के वेंटिलेटर्स निजी अस्पतालों में किराए पर देने के आदेश हो गए ताकि प्रभावशाली लोग भी धंधा कर सकें। राज्य सरकार ने अब कांटेक्ट ट्रेसिंग बन्द कर रेपिड एंटीजन टेस्ट को भी मान्य कर दिया। संक्रमितों को क्वारंटीन करना भी बन्द कर दिया। मरीजों की चिंता केन्द्र को कोसने की चर्चा में बदल गई। यही हाल कमोबेश अन्य राज्यों का है। लॉकडाउन के मुद्दे पर भी राजनीति। कभी पूर्ण लॉकडाउन, कभी आंशिक। केन्द्र ने जहां पिछली बार रेल, बस और हवाई यात्राएं बन्द कर दी थी, इस बार सब चालू हैं। उद्योगों में काम हो रहा है, किन्तु पलायन भी जारी है।

पूरा देश बिखरा पड़ा है। एकता-अखण्डता के नारे दफन हो गए। ‘डिजिटल इण्डिया’ व ‘आत्म निर्भर’ का नारा कोरोना के आगे घुटने टेक चुका। सरकारों को छोड़, सारा देश जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा है। पिछले छह माह में संक्रमितों की संख्या 40-50 हजार से बढ़कर चार लाख प्रतिदिन पहुंच गई है। इस बार कोरोना की अधिक मार वाले ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाओं का नितान्त अभाव है। मानों गांव, अलग देश के हैं और शहर अन्य देश के। ऐसा भी लग रहा है मानो इनका कोई जनप्रतिनिधि ही नहीं। कोरोना खा गया?

केन्द्र सरकार के निर्णय भी दूरदर्शिता शून्य ही साबित हुए। आज टीके की उपलब्धता की भी समस्या है। केन्द्र ने नि:शुल्क और सशुल्क व्यवस्था करके नासमझी का उदाहरण ही दिया है। वैक्सीन पर राजनीति ने तो पीडि़तों को नजरंदाज ही कर दिया। यही हाल ऑक्सीजन की सप्लाई का हुआ। न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। हालांकि न्यायपालिका भी आश्वासनों के आगे कुछ दे नहीं पाई। ऊपर से कोढ़ में खाज। किस अल्पज्ञानी ने यह सुझाव दिया कि 18 वर्ष से ऊपर वालों को भी अभी टीका लगाया जाए। अभी देश के फ्रण्ट लाइन वर्करों तक भी टीका नहीं पहुंचा। दूसरी डोज वाले कतार में हैं। जानलेवा साबित होने वाला ऐसा निर्णय आपूर्ति सुनिश्चित कर योजनाबद्ध ढंग से किया जाना चाहिए था।

ऐसे निर्णयों के चलते जनता के सामने सब कुछ अस्पष्ट हैं। सरकारें कब और कैसे, निर्णय बदल देती है, जनता अनभिज्ञ क्यों रहे? दूसरी डोज के बारे में केन्द्र सरकार तीन बार निर्णय ले चुकी। अब इसकी अवधि 12 से 18 सप्ताह कर दी गई। पहले यह अवधि सुरक्षित नहीं मानी गई थी। यही हाल एन-95 मास्क का हुआ। कण्टेनमेण्ट जोन में अब तो 10 प्रतिशत संक्रमण पर लॉकडाउन के निर्देश आ गए। कल क्या बदल जाएगा कुछ नहीं कहा जा सकता?

प्रश्न यह है कि क्या केन्द्र सरकार हालात को आपातकाल के रूप में स्वीकार करेगी? क्या कुछ बड़े देशव्यापी निर्णय लेकर जानें बचाने का युद्धस्तर पर अभियान चलाएगी? क्या सम्पूर्ण देश को एक डोर में बांधकर विश्व को देश की अखण्डता और दक्षता का परिचय देगी? क्या विदेश मंत्री नहीं पढ़ रहे विदेशी मीडिया की भाषा? सभी राज्य विदेशी वैक्सीन आयात के लिए आपस में लड़ रहे हैं। यह कार्य तो राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए।

पूरा देश एक प्रश्न पर आकर ठहर गया है। संसद मौन क्यों है? यह देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा है जिसमें कोने-कोने का प्रतिनिधित्व है। आपातकाल में सत्र के लिए क्या सामान्य नियमों का आश्रय सही होगा? क्या पिछला बजट सत्र नवाचार का उदाहरण नहीं? यह सही है कि सत्र आज पूर्णत: व्यक्तिश: नहीं हो सकता। वैसे भी अगला सत्र जुलाई में होना है। चार लाख लोग प्रतिदिन के हिसाब से जुलाई तक कितने संक्रमित हो चुके होंगे? गांवों की स्थिति को देखते हुए, चुनाव वाले राज्यों की भावी संख्या की सोचें तो आंकड़ा पांच लाख के पार ही होगा। और, मर कितने जाएंगे? वैक्सीन की आपूर्ति संदिग्ध है। विदेशों की नकल पर फैसले करने वाले ये अधिकारी ही क्यों नही संसद सत्र बुलाकर दिखा सकते। विदेशों में भी वर्चुअल सत्र हो रहे हैं। हालांकि वर्चुअल सत्र का प्रावधान संविधान में नहीं है। उस वक्त तकनीक ही उपलब्ध नहीं थी। आज तो है। सरकार को मंत्रिमण्डल की बैठक में वर्चुअल सत्र का प्रस्ताव तुरंत पारित करना चाहिए। अन्य दलों के शीर्ष नेताओं को भी विश्वास में लेना होगा। जुलाई के सत्र में इसे कानूनी मान्यता दिलाई जा सकती है।

आज जब हम सुझावों और आलोचनाओं को सुनने के बजाए दुत्कार देते हैं तब लोकतंत्र के स्वरूप पर प्रश्न खड़े हो जाते हैं। सत्र बुलाया गया तो प्रत्येक सांसद से क्षेत्रवार मौतों का ब्योरा भी मिलेगा। सरकारों की कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार का चित्र भी दिखाई देगा। कहां चूक हुई, कहां अव्यवस्था हुई, कहां राजनीति हावी रही, सब-कुछ सामने आ जाएगा। हालांकि राष्ट्रपति भी आपातकाल में सत्र को आहूत कर सकते हैं, किन्तु उनको पहले कोरोनाकाल के मद्देनजर व्यावहारिक स्वरूप से आश्वस्त तो करना ही पड़ेगा। कितने ही हाथ एक साथ उठते नजर आएंगे, संसाधनों की वर्षा होगी और देश कार्यपालिका के चंगुल से निकल संविधान की मूल अवधारणा के तहत जन प्रतिनिधियों के संरक्षण में पहुंच सकेगा। देश को जीवन दान मिलेगा। खोई हुई कीर्ति लौटेगी। संसद जागेगी, देश भी उठ खड़ा होगा। लोकतंत्र की सहभागिता की मर्यादा पुन: प्रतिष्ठित होगी।

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