भारत की ये दोनों हॉकी टीमें कोई-सा भी पदक लेकर लौटें, देश के लिए निश्चित ही गौरव का क्षण होगा। लेकिन सबसे बड़ा संदेश भारतीय टीमों के प्रदर्शन का यह है कि हमें और हमारी सरकारों को खेलों को लेकर सोच में बदलाव करना ही चाहिए। समुचित प्रशिक्षण और मौका मिले तो पदकों को झोली में डालना मुश्किल काम नहीं है। खेल चाहे कोई-सा भी हो, खिलाडिय़ों को मिलने वाले अवसर ही उन्हें आगे बढ़ाते हैं। टोक्यो ओलंपिक में निराशाजनक नतीजों के बीच हमारी बेटियां ही बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। असल बात यह है कि पिछले सालों में हमने हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा तो दे दिया पर लंबे समय तक ओलंपिक में भारत का गौरव बढ़ाने वाला यह खेल बाजारवाद की भेंट चढ़ता रहा।
हॉकी, कबड्डी व फुटबॉल जैसे खेल, जिनमें आसानी से खेल प्रतिभाओं की तलाश हो सकती है उन्हें निचले पायदान पर मान लिया गया। टोक्यो ओलंपिक में हॉकी टीमों के प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया कि हॉकी को गुजरे जमाने का खेल मानना बड़ी भूल होगी। यह मानना होगा कि इन दोनों टीमों के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे खुद खिलाडिय़ों की हाड़तोड़ मेेहनत है तो कोच द्वारा बेहतरीन प्रशिक्षण, भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) की तैयारी व सरकारों के सहयोग ने भी संयुक्त रूप से काम किया है। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को तो श्रेय मिलना ही है क्योंकि वे अकेले मुख्यमंत्री हैं, जिनकी सरकार कोरोना संक्रमण के दौर में भी भारतीय हॉकी टीम को प्रायोजित करने का खर्च उठाती आ रही है।
पदक हासिल करने के बाद तो खिलाडिय़ों का मान-सम्मान करने के लिए सरकारों में होड़ लग जाती है लेकिन उन्हें इस सम्मान की मंजिल तक पहुंचाने के जतन करने में ये पीछे रह जाती हैं। हॉकी का सुनहरा अतीत ध्यान रखने के साथ इस तथ्य को भी याद रखा जाना चाहिए कि खेलों को समुचित प्रोत्साहन में ही पदकों की उम्मीद छिपी रहती है।