राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय को तरजीह बयां कर रहे ये नतीजे

सवाल उठता है कि क्या क्षेत्रीय दलों के नेता एकजुट हो एक संयुक्त मोर्चा बनाकर कोई सर्वमान्य नेता चुन पाएंगे जो मोदी की लोकप्रियता को टक्कर दे पाए।

<p>राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय को तरजीह बयां कर रहे ये नतीजे</p>

संजय कुमार, प्रोफेसर, सीएसडीएस और लोकनीति के सहनिदेशक

दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यही संकेत दिए थे कि मतदाता लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग मानस के साथ मतदान करता है। हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों से इस तथ्य को और बल मिलता है, क्योंकि ये नतीजे 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से बिल्कुल अलग हैं। कई तथ्य हैं, जिनकी व्याख्या से इन राज्यों के चुनाव परिणामों को समझा जा सकता है।

पहला, सुशासन के अच्छे नतीजे हासिल होते हैं, जिनसे पार्टियां दोबारा सत्ता में वापसी कर पाती हैं। तीन जगह जनता ने पिछली सरकार को ही दोबारा चुना जबकि दो जगह नहीं। स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव राज्य के स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। यह संदेश भी मिलता है कि विधानसभा चुनावों में राज्य स्तरीय नेतृत्व, राष्ट्रीय नेतृत्व की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, भले ही राष्ट्रीय नेतृत्व कितना भी सुदृढ़ क्यों न हो। चुनाव नतीजों ने एक बात और साफ कर दी है कि भले ही भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पार्टियों से अग्रणी हो, लेकिन अजेय नहीं है। जाहिर है, भाजपा के लिए बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दल हैं न कि कांग्रेस। राष्ट्रीय स्तर पर यदि भाजपा का मुकाबला करना है तो इन क्षेत्रीय दलों को एक साथ आना होगा लेकिन सवाल यह है – क्या वे आ सकेंगे?

भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद पश्चिम बंगाल मेे टीएमसी ने बड़ी जीत हासिल की, तमिलनाडु में द्रमुक व उसके सहयोगी दल भी आसानी से जीत गए। केरल में मेट्रोमैन ई. श्रीधरन को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार (अघोषित) चुनाव मैदान में उतारने के बावजूद भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। प.बंगाल में तो कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई, असम में भी नहीं जीत पाई, और तो और केरल में भी कांग्रेस का गठबंधन यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) हार गया। यूडीएफ की जीत के आसार थे, क्योंकि चार दशक से जनता ने दोबारा किसी पार्टी या गठबंधन को नहीं चुना था।

राज्यों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव में मतदाता राज्य हित को महत्व देता है जबकि लोकसभा चुनाव में देश के परिप्रेक्ष्य में मतदान करता है। इसलिए एक चुनाव परिणाम को कभी भी अगले चुनाव परिणाम का ***** नहीं माना जा सकता। 2019 में 42 में से 18 सीटें जीतने वाली भाजपा को बंगाल जीतने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि पार्टी पश्चिम बंगाल विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी है। दूसरी ओर, केरल में माना जा रहा था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में 20 में से 19 सीटें जीतने वाले गठबंधन यूडीएफ की जीत पक्की है, पर ऐसा नहीं हुआ।

सुशासन और राज्य में मजबूत नेतृत्व को तरजीह मिलती ही है। सीएसडीएस द्वारा करवाए गए सर्वे के अनुसार, केरल में जनता पी. विजयन सरकार के कार्यों से खुश थी तो असम व पश्चिम बंगाल में वहां की सरकार के कार्यों से। विजयन और ममता सुदृढ़ नेतृत्व के चलते ही राष्ट्रीय नेतृत्व वाली बड़ी पार्टी को टक्कर दे सके। जाहिर है राज्य स्तरीय नेतृत्व का अधिक महत्व है। हालांकि भाजपा असम में सत्ता में बने रहने में कामयाब रही, पर उसका प्रदर्शन 2016 से बेहतर नहीं रहा, कारण यह कि मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल उतने प्रभावशाली नेता नहीं हैं। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक हार गई क्योंकि न तो राज्य सरकार का कार्य सराहनीय था और न ही नेतृत्व इतना सुदृढ़ था कि मतदाताओं को आकर्षित कर सके।

इन चुनाव परिणामों के बाद अब कयास लगाए जाने लगे हैं कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर दे सकती हैं। फिलहाल ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। ममता बनर्जी अपने गृह राज्य में लोकप्रिय हैं, उनकी जीत इसका प्रमाण है लेकिन अन्य नेताओं पर भी यह बात सटीक बैठती है, जैसे ओडिशा में नवीन पटनायक, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, ऐसे और भी कई नेता हैं। चूंकि इनमें से कोई भी क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तरीय नहीं है, नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभर कर आना किसी भी नेता के लिए आसान नहीं है। मोदी लोकप्रिय राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के नेता होने के साथ स्वयं अत्यधिक लोकप्रिय हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये सभी नेता एकजुट हो एक संयुक्त मोर्चा बनाकर कोई सर्वमान्य नेता चुन पाएंगे जो मोदी का मुकाबला कर सके। फिलहाल यह इन नेताओं के लिए दूर की कौड़ी है।

Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.