जीवन के लिए अनिवार्य तप , शरीर, मन को साधने का काम भी तप

क्यों न बारिशों के इस मौसम में तप, तपकना, तपस , तपसा, तपश्चर्या , तपस्विता , तपस्वी आदि शब्दों पर ग़ौर किया जाए।

<p>क्यों न बारिशों के इस मौसम में तप, तपकना, तपस , तपसा, तपश्चर्या , तपस्विता , तपस्वी आदि शब्दों पर ग़ौर किया जाए।</p>

कल दिन भर तन और मन खूब तपा और शाम को कहीं जाकर रहमतों के कुछ बादल बरसें। बारिशों का ज़िक्र जीवन के लिेए ज़रूरी है।जीवन के लिए जिस तरह साँसों का आवागमन और प्राणों के लिए जैसे आत्मा का साहचर्य, लगभग उतना ही ज़रूरी है तपन और बारिशों का साहचर्य भी। इधर मरुदेश में इन बरसाती महीनों में जब किसी दिन खूब तपता है तो समझ आ जाता है कि आज दिन ढलते-ढलते सौंधी महक नथुनों में घुलने वाली है।

आज क्यों न बारिशों के इस मौसम में तप, तपकना, तपस , तपसा, तपश्चर्या , तपस्विता , तपस्वी आदि शब्दों पर ग़ौर किया जाए। ‘तप’ वैसे तो पुंल्लिंग संज्ञा शब्द है जिसका अर्थ है शरीर को तपाने , तपाने का अर्थ कष्ट देने वाले वे कार्य जो चित्त को विषयों से परे धकेलने के लिए , उनसे दूर करने के लिए किए जाए। शरीर को साधने का काम भी तप हुआ तो मन को साधने का काम भी तप हुआ। इस प्रकार साधना से लेकर समाधि तक की क्रियाएँ तप कहलाईं। यह तप ही तय सरणियाँ चढ़ नियम बना।

तप को ताप भी कहा गया और यूँ इसका अर्थ हुआ ताप, अग्नि ,घाम,ग्रीष्म ऋतु आदि। अध्यात्म और दर्शन में तीन ताप बताए गए -आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आध्यात्मिक । ये क्रमशः सांसारिक वस्तुओं या जीवों से प्राप्त कष्ट, दैवीय शक्तियों द्वारा दिया गया या पूर्व में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट और अाध्यात्मिक अज्ञानजनित कष्टों से उत्पन्न हुआ। तप के ताप अर्थ से ही ज्वर या बुखार अर्थ भी नि:सृत होकर प्रयुक्त हुआ। इस प्रकार जब एक ही शब्द अनेक शब्दों में प्रयुक्त हुआ तो वह अनेकार्थी शब्द कहलाया। तप से तपन बना जो तपने की क्रिया या भाव है। लोकभाषा में ‘तपकना’ शब्द भी मिलता है जिसका अर्थ है धड़कना , उछलना , चमकना । तप से बना एक शब्द ‘तपती’ भी है। तपती हुई दोपहरी से इसका अर्थ तपन या तपने की क्रिया से हुआ। वहीं ‘तपती’ संज्ञा पौराणिक संदर्भों में भी मिलती है जिसका मंतव्य सूर्य और छाया की कन्या से है जिसके गर्भ से कुरु हुए थे।

‘तापती’ तापों को हरने वाली एक नदी भी है। तप करने वाला कर्ता तपसी, तपस्वी , तापस कहलाया तो स्त्री तापसी , तपस्विनी कहलाई और यह क्रिया तपस्या या तपश्चर्या कहलाई ।इसी तरह तपस्वी होने की अवस्था तपस्विता कहलाई । इसी तप से सोना तप कर कुंदन बनता है। यही तप सत् का नाम है , जीवन के लिए अनिवार्य है तभी तो कबीर ने कहा है-

“साँच बराबर तप नही झूठ बराबर पाप
जाके हृदय साँच है, ताके हृदय प्रभु आप।।”

-विमलेश शर्मा

– फेसबुक से साभार

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