स्पंदन : विवाह-7

ससुराल से ‘लेटकर निकलने वाली’ पत्नियां तो इतिहास में ही पढ़ाई जाएंगी। विवाह में 15 पीढ़ियां अब नहीं जुड़ेंगी। केवल एक पीढ़ी में ही आपस में विवाह होंगे और उसी पीढ़ी में पूरे भी होते जाएंगे।

– गुलाब कोठारी
भौतिक विकास के साथ-साथ जीवन भी इतना भौतिकता से चिपक गया कि शरीर भी एक उपकरण बनकर रह गया। व्यक्ति जीवन भर इसके सहारे प्रयोग करता रहता है। प्रयोग करने की दृष्टि भी भौतिक बन गई है, बाहरी ज्ञान पर आधारित हो गई। जिस प्रकार शरीर नश्वर है, उसी प्रकार बाहर का ज्ञान भी नश्वर है। पेट भरने से आगे उस ज्ञान की उपादेयता नहीं है। इसीलिए आज ज्ञान पेट भरने का साधन बनकर रह गया। जीवन के साथ इसका दूसरा कोई संबंध ही नहीं रह गया है।
इसका पहला प्रभाव तो यह हुआ कि व्यक्ति का प्रकृति से सामंजस्य टूट गया। शरीर के भीतर प्रकृति भी कार्य करती है और हम स्वयं प्रकृति द्वारा संचालित हैं, यह विचार ही जीवन से बाहर हो गया। व्यक्ति स्वयं ही कर्ता और स्वयं का नियन्ता बन गया। उसको न तो शरीर की क्रियाओं की ही जानकारी है, न ही इसके भीतर होने वाली क्रियाओं की। व्यक्ति बाहरी संसार में ही जीता है। जो कुछ उसकी इन्द्रियों की पकड़ में आता है, उतना ही उसका संसार रह गया है। उसके आगे के जीवन क्रम को समझना आज उसकी आवश्यकता ही नहीं रह गई। जो कुछ उसे अच्छा लगता है, करने लग जाता है। हेय और उपादेय का भेद उसके जीवन से सिमट ही गया है। बाहरी ज्ञान की स्थूलता के कारण सूक्ष्म ओझल हो गया है। यही दृष्टि उसके निजी जीवन को प्रभावित करती है।
मेरे देखते-देखते कितने विदेशी मित्रों की शादियां हुई, तलाक हुए, फिर शादियां हुई। आज खुश कोई नहीं है। शादियां भी लंबे काल तक नहीं टिक पातीं। जिनको हम भारतीय लोग संस्कार कहते हैं, वहां नहीं दिखाई पड़ते। जो वहां हो रहा है, वही वहां के संस्कार हैं। जीवन शुद्ध शरीर, धन और अपेक्षाओं पर जुड़ा है। न मिलने में देर, न बिछुड़ने में। ऐसा ही कुछ नजारा यहां भी समृद्ध परिवारों में देखने को मिलने लगा है। विवाह तो इतनी धूम-धाम से होते हैं कि इससे बड़ा झूठ जीवन में कुछ होता ही नहीं। वर-वधू के मां-बाप भी वैभव की चकाचौंध का ही बखान करते रहते हैं। परम्पराएं इतनी सख्ती से निभाई जाती हैं कि जरा कहीं चूक न हो जाए। स्वयं को तो परम्परा की याद भी नहीं होती। कोई याद दिला जाता है। वर-वधू मात्र यांत्रिक दिखाई पड़ते हैं। उनको कोई आदमी मानकर देखता ही नहीं है। घरवालों का ध्यान तो मेहमानों के साथ फोटो खिंचवाने में लगा रहता है। वर-वधू केवल उठक-बैठक करते हैं। उनको पानी पिलाना भी किसी को याद नहीं होता। मां-बाप का भावनात्मक जुड़ाव भी पश्चिम जैसा ही दिखाई देता है। शादी पैसे के जोर पर होती है। आदमी कहीं नहीं होता। होटल के लोग मांगें पूरी करते रहते हैं। दोनों परिवार के लोग सज-धजकर टहलते रहते हैं। इसी का तो नाम अब विवाह पड़ गया है। उस भीड़ में कौन तो आया, खाया भी कि नहीं खाया, कौन जाने! लिफाफे खोलेंगे, तब ध्यान आएगा।
पूरी की पूरी विवाह पद्धति ही नकली बनकर रह गई। तोरण-तलवार-घोड़ी जीवन में जुड़े ही नहीं, तब विवाह में क्यों चिपके हुए हैं? फेरों का अर्थ और कारण किसी को मालूम ही नहीं, तब क्यों खा रहे हैं? फेरों का समय पंडित तय करता है। जल्दी कराने के लिए उसे भी रिश्वत दी जा रही है। मंत्रों की भी जरूरत किसी को नहीं लगती। फिर यह दिखावा क्यों? मुहूर्त निकल जाने के समय तक तो बारात ही नहीं आती। सारे घर वाले सडक़ पर नाचते रहते हैं। लड़की वाले के घर पर नाचें, तब भी समझ में आता है। सज-धजकर सडक़ पर? और इसी वातावरण में हम वर-वधू का मंगल भविष्य ढूंढ़ रहे हैं। अनुष्ठान के जरिए देवता का आशीर्वाद मांग रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि जैसी प्रार्थना होगी, वैसा ही फल मिलेगा।
इस विवाह का वर-वधू के आत्मीय संबंध से कोई लेना-देना ही नहीं है। मां-बाप ‘कन्यादान’ भी कर गए और वहां कन्या की परिभाषा ही लागू नहीं होती। वहां तो एक लड़की है, जैविक लड़की। घर छोडकऱ जा रही है, पति के साथ। क्यों जा रही है, किसी ने नहीं बताया उसे। नए जीवन को कैसे परिभाषित करना है और क्यों, नहीं मालूम। संस्कारों का अध्याय तो शायद इसकी मां को भी नहीं मालूम। देखा-देखी का नाम ही संस्कार है। देखा-देखी ही विवाह का कारण है। दोनों मिलकर गृहस्थी चलाएंगे, कमाएंगे, पेट पालेंगे और बस! विवाह की तैयारी से ही पता चल जाता है कि हम कहां जा रहे हैं। लडक़ा कार्यालय में छुट्टी मांगता है -‘सर मेरा विवाह है। पांच दिन की छुट्टी चाहिए। कपड़े सिलवाने हैं, सर। आप भी जरूर आइएगा।’ उधर लड़की वाले कपड़ों और गहनों में उलझे दिखाई देंगे। उसके यहां ऐसा था, हमारे यहां उससे अच्छा होना चाहिए। सगाई भी विवाह के एक दिन पहले ही कर लेंगे। फेरों से पहले ‘रिंग सेरेमनी’ भी होगी। लड़के की अंगुली की नाप भी चाहिए।
लेकिन इस बीच मां को बेटी के साथ बैठकर अपने अनुभव बांटने की आवश्यकता ही नहीं लगती। वह तो पैसा देकर उसकी मांग पूरी करके संतुष्ट रहती है। लड़की को यह तैयारी जरूर करके जाना है कि जरूरत पड़ने पर अपने पांव पर खड़ी रह सके। इसी शक्ति के कारण उसका टकराव का मार्ग खुल गया। समझौता एक सीमा के आगे नहीं होता। दोनों की अपनी-अपनी पहचान भी बनी रहती है। एक तो होते ही नहीं; केवल साथ रहते हैं। इनको अलग होने में कितनी देर लगेगी। ससुराल से ‘लेटकर निकलने वाली’ पत्नियां तो इतिहास में ही पढ़ाई जाएंगी। विवाह में 15 पीढ़ियां अब नहीं जुड़ेंगी। केवल एक पीढ़ी में ही आपस में विवाह होंगे और उसी पीढ़ी में पूरे भी होते जाएंगे।
जैसा नेता, वैसा देश

नालायक बेटे
Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.