सामयिक : चीन की आबादी का घटना भी विश्व के लिए समस्या

सस्ते श्रमिकों के चलते चीन ने अमरीकी- यूरोपीय बाजारों में कम कीमत पर उत्पाद बेचे, पर सिकुड़ते श्रमिक बाजार के कारण यह अब अतीत की बात होगी।

<p>सामयिक : चीन की आबादी का घटना भी विश्व के लिए समस्या</p>

डेनियल मॉस, स्तम्भकार

चीन की घटती आबादी के परिणाम आने वाले दशकों में इसकी सीमाओं से परे दुनिया को अधिक प्रभावित करेंगे बजाय चीन के। चीन की अर्थव्यवस्था गतिमान रहेगी और लोगों की आय भी बढ़ती रहेगी, भले ही कुछ धीमी दर से। जबकि बाकी देशों के लोग वैश्विक विस्तार की धीमी होती रफ्तार के साथ तालमेल मिलाने को मजबूर होंगे। चीन की डिशवॉशर से लेकर सस्ती गुडिय़ा तक बेचने वाले राष्ट्र की छवि को अब इतिहास की पुस्तकों तक समेट देना चाहिए। गत वर्ष चीन की जनसंख्या 1.412 बिलियन थी। 1953 के बाद एक दशक में पाई गई यह न्यूनतम सालाना औसत वृद्धि दर थी (0.53%)। कामकाजी जनसंख्या 70त्न से अधिक की गिरावट के साथ 63.4% रह गई जबकि 60 व इससे अधिक उम्र के लोगों की जनसंख्या में वृद्धि देखी गई।

चीन की ज्यादातर आबादी शहरों में बसती है। विश्व के कुछ समृद्ध देश जनसंख्या समस्या का सामना कर चुके हैं। जापान की जनसंख्या 2010 में सर्वाधिक थी और दक्षिण कोरिया की जनसंख्या में 2020 में पहली बार गिरावट देखी गई। सिंगापुर में 2003 के बाद गत वर्ष पहली बार जनसंख्या में गिरावट दर्ज की गई। ये देश अर्से से वृद्धजन की बढ़ती संख्या और कम होती प्रजनन दर की समस्या से जूझ रहे हैं। फिर भी इनमें शानदार इंफ्रास्ट्राक्चर,अच्छे स्कूल, उच्च स्तरीय जीवन शैली और तकनीक की बदौलत महामारी के दौर में भी आर्थिक मुश्किलें नहीं आईं। चीन इतनी तरक्की कर चुका है कि उसे व्यावसायिक भविष्य को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। आर्थिक विकास के मुख्य लक्षण यही तो हैं कि जीवनशैली का स्तर सुधर जाता है, लोग शिक्षण संस्थानों में ज्यादा समय बिताते हैं, शादी देर से करते हैं और अपने बच्चों पर ज्यादा से ज्यादा खर्च करना चाहते हैं। अब अगर चीन एक संतान नीति वापस लेने की ओर बढ़ रहा है, तो भी शायद ही जनसंख्या पर कोई असर पड़े, ऐसे में उससे वैश्विक परिणाम पर विचार की उम्मीद बेमानी है। 2000 के बाद से चीन की जीडीपी में सालाना 8त्न की औसत वृद्धि देखी जा रही है, जबकि अमरीका में यह 2त्न से कम है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की भविष्यवाणी के अनुसार, अगर सब कुछ ऐसा ही रहा तो 2026 तक वैश्विक जीडीपी में होने वाली वृद्धि में चीन का योगदान 20% होगा, अमरीका का 14.8% और भारत व जापान का क्रमश: 8.4% व 3.5%। घटती जनसंख्या समग्र विकास की गति धीमी कर सकती है, भले ही प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि जारी रहे। इसी प्रकार लगातार कम होती मुद्रास्फीति भी बहस का विषय है। केंद्रीय बैंक जहां पहले इसके पक्षधर थे, अब चिंतित हैं।

एक कंगाल देश से विश्व का बड़ा निर्यातक बनने के चीन के सफर पर नजर डालें। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सबसे सस्ते श्रमिक उपलब्ध करवाने वाला चीन, अमरीकी व यूरोपीय बाजारों में कम कीमत पर उत्पाद बेचने लगा, पर सिकुड़ते श्रमिक बाजार की बदौलत ये लाभ अब अतीत का हिस्सा होंगे। चाल्र्स गुडहार्ट और मनोज प्रधान ने 2020 में अपनी किताब ‘द ग्रेट डेमोग्राफिक रिवर्सल: एजिंग सोसाइटीज, वेनिंग इनइक्वलिटी एंड इन्फ्लेशन रिवाइवल’ में लिखा है कि चीन अब निर्यातक से तटस्थ की भूमिका में आ चुका है और भविष्य में बढ़ती हुई मुद्रास्फीति का कारक बन सकता है।
ब्लूमबर्ग

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