भौतिक दृष्टि जड़-तत्व को प्रधानता देती है और उसे ही चेतन तत्व का नियामक या निर्धारक मानती है। आत्मवाद में चेतन सत्ता को सर्वोपरि माना जाता है। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है। जिसका उदय होता है, उसका अस्त होना भी तय है, ताकि फिर उदय हो सके। यही सृष्टि का चक्र है। मनुष्य को अपना विनाश रोकने के लिए कामनापूर्ण विषयासक्ति को छोडऩा पड़ेगा। मनुष्य की विषय-वृत्ति की सन्तुष्टि नहीं हो सकती। इसके विषय में प्रकृति का कुछ ऐसा नियम है कि विषयों को जितना संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है, वे उतने ही अधिक बढ़ते हैं। अस्तु, इनका त्याग ही इनसे पीछा छुड़ाने का एक मात्र उपाय है।
विषय वासनाएं हाथ में पकड़ी हुई छड़ी की तरह ही तो हैं, हाथ खोल दीजिए वह स्वत: गिर जाएगी। यह जन्म-जन्मान्तर का कलुष है, जो मनोदर्पण पर संचित हो कर स्थाई बन जाता है। इसे मल-मल कर ही धोना पड़ेगा। जिस प्रकार मैल को मैल से साफ नहीं कर सकते, उसी प्रकार विषयों को वासनात्मकता से नहीं धोया जा सकता। इनको धोने के लिए निर्मल भावनाओं की आवश्यकता होगी।
निर्मल भावनाओं में करुणा की भावना सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य को अपने में अधिक से अधिक करुणा का स्फुरण करना चाहिए। करुणा एक दैवीय गुण है, आत्मा का प्रकाश है। इसकी उत्पत्ति होते ही, मनुष्य के सारे मानसिक मल धुल जाते हैं और उसका हृदय-दर्पण अपनी नैसर्गिक छटा से चमक उठता है, जिसमें वह आत्मा रूप परमात्मा का दर्शन कर सकता है। संसार का कोई भी धर्म अथवा मत-मतान्तर ऐसा नहीं है, जिसमें विनम्रता, दया, क्षमा, सहानुभूति आदि गुणों को महत्ता न दी गई हो। इसलिए करुणा लाने के लिए मनुष्य को भगवान का आश्रय लेना होगा। विनम्रतापूर्वक उसकी शरण में जाना होगा। प्रेमपूर्वक उसकी सृष्टि को दया से ओत-प्रोत करना होगा। इसलिए विनम्रता को अपनाएं।