कैसे याद करें गांधी को

जन्मशती के मौके पर कुटी संरक्षित करने के लिए बुलाए गए अमरीकी वास्तुविद जोसेफ एलेन स्टीन ने कहा था कि यह कुटी हमसे कई सवाल पूछती है और हमारे पास उनका कोई जवाब नहीं है।

<p>mahatma gandhi, work and life, opinion, rajasthan patrika article</p>
– अरुण कुमार त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार
भारत सरकार ने महात्मा गांधी की १५०वीं जयंती पर उन्हें याद करने के लिए देश से विदेश तक साल भर चलने वाले विविध कार्यक्रमों की लंबी सूची तैयार की है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे राष्ट्रपिता को समझने में अगर थोड़ी भी मदद मिले तो इसे एक सार्थक प्रयास मानना होगा। सभ्यताओं के संघर्ष में उलझी दुनिया को गांधी की आवश्यकता तो है ही और आंतरिक तौर पर जाति और धर्म की घृणा के जाल में उलझे भारत को और भी ज्यादा है। इसीलिए गांधी और कस्तूरबा की १५०वीं जयंती पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और विभिन्न विभागों के सचिवों के निर्देशन में तय होने वाले कार्यक्रमों के साथ यह भी देखना चाहिए कि वह कार्यक्रम कैसे हों ताकि २१वीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता भी सिद्ध हो और उनके संदेशों की आत्मा भी बची रहे।
गांधी को याद करने का एक तरीका बेहद सादगी और समर्पण भरा हो सकता है और दूसरा तरीका तडक़-भडक़ और महंगे तौर-तरीकों वाला। एक तरीका गांधी को एक संदेश मानकर उसे अपनाने का हो सकता है और दूसरा तरीका गांधी को माध्यम मानकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का। एक तरीका साधन की पवित्रता का हो सकता है तो दूसरा तरीका साध्य का ध्यान रखने का। यह एक दुविधा है जो व्यापक स्तर पर तो नहीं, पर छिटपुट स्तर पर दिखाई पड़ती है और इसीलिए उस पर विचार होना चाहिए।
इस तरह की एक चिंता वर्धा के मगन संग्रहालय की अध्यक्ष डॉ. विभा गुप्ता व्यक्त करती हैं और उस पर ध्यान दिए बिना गांधी के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। आज चुनौती यह है कि सरकार की महंगी योजनाओं के बीच सेवाग्राम आश्रम में बिताए गए गांधी के करीब 11 वर्षों के इतिहास को कैसे संरक्षित किया जाए। कैसे उसे उस समय में फ्रीज करें और कैसे आज के लिए जीवंत रखें।
गांधी 1934 में वर्धा शहर में आए और 1936 में उन्होंने मीरा बेन की पहल और जमनालाल बजाज के सहयोग से सेगांव में अपना आश्रम स्थापित किया। इस आश्रम से भारत के स्वाधीनता आंदोलन के महत्त्वपूर्ण निर्णय हुए और यहां मिट्टी की दीवार और खपरैल की छत से बनी कुटी में रहकर महात्मा गांधी ने अपने नैतिक बल से अंग्रेजी साम्राज्य के बकिंघम पैलेस को चुनौती दी। उस समय यह कुटी मात्र सौ रुपए की बनी थी और गांधी की सख्त हिदायत थी कि उसमें स्थानीय सामग्री इस्तेमाल हो, लकड़ी गढ़ी ना जाए और तय कीमत से एक रुपया भी ज्यादा न लगे।
आज महाराष्ट्र सरकार ने महात्मा गांधी खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड की ओर से 266 करोड़ रुपए की परियोजना तैयार की है। इसके तहत वहां मुख्य गांधी आश्रम की सडक़ के उस पार पहले के तमाम निर्माण ध्वस्त कर नए निर्माण कार्य जारी हैं। इनका असर बापू के मुख्य आश्रम तक आ रहा है। आश्रम के किनारे की नाली को सात करोड़ की लागत से पक्का तो किया ही जा रहा है, सामान्य चाहरदीवारी वाले आश्रम के चारों ओर गोल वाले कंटीले तार लगाए जा रहे हैं। विडंबना यह है कि इस पर गांधीवादी संगठनों की ओर से कोई आपत्ति नहीं है और वे यह सब स्वीकार करते जा रहे हैं।
शांति के इस दौर में कंटीले तारों से घिरती जा रही बापू की वह कुटी जब बनी थी तब युद्ध का दौर था। वह देश के स्वाधीनता सेनानियों का शिविर था और वहां लोग किसी गेट, दरवाजे या कंटीले तारों के भीतर नहीं रहते थे। वे खुले आसमान के नीचे सोते थे या फिर मिट्टी के फर्श पर बापू के साथ ही उनका डेरा लगता था।
गांधी की जन्मशती के मौके पर गांधीवादियों ने जब उस कुटी को संरक्षित करने के लिए देश-दुनिया के तीन बड़े वास्तुविदों को बुलाया तो उनकी प्रतिक्रिया अद्भुत थी। बताते हैं कि अमरीकी वास्तुविद जोसेफ एलेन स्टीन कुटी को देखकर सारे समय रोते रहे। उन्होंने दिल्ली के लोदी इस्टेट और इंडिया इंटरनेशनल को डिजाइन किया था। स्टीन का कहना था कि यह कुटी हमसे कई सवाल पूछती है और हमारे पास उनका कोई जवाब नहीं है। ऐसी ही प्रतिक्रिया गुजराती वास्तुविद बालकृष्ण दोषी और मराठी वास्तुविद अच्युत कानविंदे की भी थी। उनका कहना था कि यह कुटी हमें बताती है कि कम साधन में सादगी के साथ बनाया जाने वाला गरीब का घर कितना सुंदर हो सकता है।
सेवाग्राम की उस कुटी ने आज भी प्रश्न पूछना बंद नहीं किया है। वहां लिखी गई ‘पागल दौड़’ जैसी सूक्ति पूछती है कि बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करने के बाद भी हमारी सभ्यता की नैतिक ऊंचाई क्यों नहीं बढ़ पा रही है। गांधी को तडक़-भडक़ के साथ मनाए जाने के उत्साह को देखते हुए डॉ. लोहिया की सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी की परिभाषा ही नहीं याद आती, बल्कि याद आता है जॉर्ज आरवेल का उपन्यास ‘एनिमल फार्म’, जहां क्रांति के आरंभ में उपदेश के जो दस सूत्र लिखे गए थे वह सत्ता स्थापित होने के बाद किस तरह पलट दिए जाते हैं। गांधी जयंती को मनाए जाने के साथ उनके मूल संदेश को बचाने का ध्यान तो रखना ही होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि गांधी अपनी मृत्यु के माध्यम से भी बड़ा संदेश देते हैं और उसके भी पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। इसलिए उसका भी स्मरण और प्रायश्चित आवश्यक है।
Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.