(लेखक राजनीतिक अध्येता हैं)
देश-दुनिया में डेटा सिक्योरिटी और इससे सम्बंधित कानून बनाने की बहस के बीच हाल ही में पेगेसस के खुलासे ने भारत में बड़ी सुर्खियां बटोरी हैं। इस बात को लेकर भी चर्चा तेज है कि ऊंचे और महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों की निजता ही अगर सुरक्षित नहीं है, तो आम जनता का क्या? भारत से पहले भी 2016-17 में मेक्सिको सरकार द्वारा जासूसी के लिए पेगेसस के इस्तेमाल की खबरें बाहर आ चुकी हैं। कहा गया था कि मेक्सिको में 15000 से ज्यादा फोन नम्बरों को पेगेसस के माध्यम से ट्रैक किया गया था। उस वक्त पेगेसस को इस रूप में इस्तेमाल करने वाला मेक्सिको पहला देश बना। साल दर साल पेगेसस की तकनीक में यहां तक सुधार आ गया है कि अब किसी भी कम्प्यूटर या फोन में घुसने के लिए कोई मैसेज या लिंक भेजने की भी जरूरत तक नहीं रह गई है।
सवाल यह उठता है कि आज जब तकनीक के विकास के साथ हमारे संचार के माध्यमों की निजता का सुरक्षित रह पाना मुश्किल हो गया है, तो ऐसे समय में डेटा की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए। उचित कानूनों की निर्माण ही इसका एकमात्र उपाय नजर आता है, क्योंकि भारत के उच्चतम न्यायालय ने 2017 में निजता को भी मौलिक अधिकारों में शामिल माना है। मुश्किल यह है कि डेटा सिक्योरिटी को लेकर सख्त कानून न होने के कारण डेटा चोरी और निजता के हनन के लिए किसी को उत्तरदायी ठहराना और सजा दिलवाना बड़ा मुश्किल है।
कई देशों ने डेटा सुरक्षा को लेकर कानूनी ढांचे तैयार भी किए हैं। उदाहरण के तौर पर यूरोपीय संघ ने ‘जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन’ (जीडीपीआर) बनाया है। अमरीका भी अपने डेटा की सुरक्षा को लेकर सजग है। इसी सजगता का नतीजा है कि कुछ समय पहले सैन फ्रांसिस्को के एक न्यायालय में चल रहे मामले में वाट्सएप को यह कबूलना पड़ा कि पेगेसस द्वारा वाट्सएप पर 1400 नम्बरों की जासूसी की जा रही है, जिसमें बहुत से भारतीय भी शामिल हैं। इतना सब होने के बाद भारत में ऐसी जासूसी की घटनाओं पर कोई सख्त कदम न उठाने का कारण यही है कि इसके लिए कोई कड़ा कानून देश में नहीं है। जरूरी है कि यूरोप और अमरीका में स्थापित कानूनों की तर्ज पर एशियाई देश भी जल्द ही इस दिशा में गंभीर विचार-विमर्श शुरू कर दें।