नेतृत्व : संगठन अपना तंत्र पुनर्व्यवस्थित करें

संगठनात्मक संस्कृति साझा मान्यताओं, मूल्यों, उद्देश्य और अर्थ के एक विकसित निकाय को संदर्भित करती है, जो एक संगठन के आंतरिक पारिस्थितिकी तंत्र को बनाने में योगदान देते हैं।

<p>प्रो. हिमांशु राय</p>

प्रो. हिमांशु राय

व्यापार और प्रबंधन से संबंधित हर चर्चा में आज दो शब्दों का जिक्र बेहद आम है -‘व्यवधान’ और ‘वीयूसीए वल्र्ड’ (यानी परिवर्तनशील, अनिश्चित, जटिल और अस्पष्ट दुनिया)। वर्तमान परिदृश्य में एक ओर जब इस विश्वव्यापी महामारी से आशंकाएं और अस्थिरता व्याप्त है, उद्योग विशेषज्ञ और शिक्षाविद इसका सामना करने और इससे बाहर निकलने के लिए धैर्य और लचीलेपन के साथ समाधान खोजने में जुटे हैं। कारण, उन्हें आभास है कि कोरोनाकाल के बाद की दुनिया और भी कई जटिल चुनौतियों से घिरी होगी, जिससे बहुत अराजकता फैलने की भी आशंका है।

आने वाले समय में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संगठनों को चपलता और गतिशीलता अपनानी होगी और इसके लिए उन्हें अन्य रणनीतिक प्रयासों के अलावा, संगठनात्मक संस्कृति पुन: व्यवस्थित करनी होगी। अनुकूलनशीलता और निरंतर सुधार के गुणों को संगठनात्मक संस्कृति का हिस्सा बनाकर प्रभावी ढंग से आत्मसात किया जा सकता है। संगठनात्मक संस्कृति साझा मान्यताओं, मूल्यों, उद्देश्य और अर्थ के एक विकसित निकाय को संदर्भित करती है, जो एक संगठन के आंतरिक पारिस्थितिकी तंत्र को बनाने में योगदान देते हैं।

निरंतर बदलाव वाले इस समय में, इस ‘न्यू नॉर्मल’ में, एक लीडर की भूमिका बहुत अहम है, क्योंकि यही वह समय है जब संगठनों को संगठित और अतिरेकपूर्ण रूप से विकसित होने की आवश्यकता है। एक लीडर संगठन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण आधार तो होता ही है, इसे नया अपेक्षित आकार देने में भी अहम भूमिका निभाता है, ताकि निरंतर परिवर्तनशील विश्व में संगठन के विकास के लिए आवश्यक गुणों को भी विकसित किया जा सके। वर्तमान समय में आवश्यक है कि संगठन अपने तंत्र को मौलिक रूप से, नए सिरे से तैयार करें, ताकि उन्हें मजबूत और लचीला बनाया जा सके। जाहिर है कि संस्कृति भी इसका अपवाद नहीं है।
(लेखक आइआइएम इंदौर के निदेशक हैं)

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