बदलो मनरेगा को

कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढऩे के साथ चिंता का वातावरण गहराने लगा है। एक तरफ अस्पतालों में शैयाओं की कमी के कारण वाद-विवाद होने लगे हैं, दूसरी तरफ उद्योग-धंधे, निर्माण कार्य, बाजार आदि आर्थिक गतिविधियां बंद सी हो गई हैं। इससे विकास का पहिया थम गया है और बेरोजगारी जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। कोरोना संक्रमण शुरू होते समय यह निर्णय किए गए थे कि सड़क, पुल तथा आधारभूत ढांचे से संबंधित परियोजनाएं कुछ समय के लिए टाल दी जाएंगी ताकि कोरोना से निपटने के लिए धनराशि की कमी न पड़े।

<p>MNREGA</p>

भुवनेश जैन

कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढऩे के साथ चिंता का वातावरण गहराने लगा है। एक तरफ अस्पतालों में शैयाओं की कमी के कारण वाद-विवाद होने लगे हैं, दूसरी तरफ उद्योग-धंधे, निर्माण कार्य, बाजार आदि आर्थिक गतिविधियां बंद सी हो गई हैं। इससे विकास का पहिया थम गया है और बेरोजगारी जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। कोरोना संक्रमण शुरू होते समय यह निर्णय किए गए थे कि सड़क, पुल तथा आधारभूत ढांचे से संबंधित परियोजनाएं कुछ समय के लिए टाल दी जाएंगी ताकि कोरोना से निपटने के लिए धनराशि की कमी न पड़े। लेकिन, कोरोना संकट तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। एक समस्या जो सामने आती दिखाई दे रही है, वह है चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की। आने वाले दो महिनों में जब स्वास्थ्यकर्मियों की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, आशंका है कि सबसे ज्यादा कमी भी उसी समय झेलनी पड़ेगी। संकट कितना बड़ा हो सकता है, इसका अभी अनुमान भी लगाना मुश्किल है।

अभी तक हमारी सरकारें, राजनैतिक नेतृत्व और अफसर यह मानकर फैसले कर रहे थे कि दो-तीन माह बाद कोरोना की मार कम हो जाएगी। देश की अर्थव्यवस्था फिर पटरी पर आ जाएगी और सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। लेकिन अब यह स्पष्ट होने लगा है कि अब कोरोना के साथ ही चलने की आदत डालनी पड़ेगी। विकास भी करना है तो इसी के साथ आगे बढऩा होगा। ऐसे में नीतियां, कार्यक्रमों और पूर्व के निर्णयों पर पुनर्विंचार करना जरूरी हो गया है।

बड़े संकट से निपटने के लिए सूझ-बूझ भी बड़ी चाहिए। साथ ही दूरदृष्टि और समस्याओं से निपटने की अग्रिम तैयारी की क्षमता भी। अभी तो देश में हालत यह है कि सरकारी मशीनरी आग लगने के बाद कुएं खोदती है। जब तक सरकारी योजना अमल में लाई जाती है, तब तक संकट अपना काम कर चुका होता है। अब एक-एक पैसा ऐसे कार्यों में होगा जो रोजगार भी उपलब्ध कराए और देश को विकास के रास्ते पर भी आगे ले जाए। उदाहरण के लिए मनरेगा (MNREGA)। इस योजना में अरबों रुपया खर्च हो रहा है पर उत्पादन और विकास के नाम पर कोई लाभ नहीं मिल रहा। पर ऐसा कब तक चलाया जा सकता है, तो क्या मनरेगा के स्वरूप पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए। क्या इतनी बड़ी राशि और इतनी श्रम शक्ति को उत्पादक कार्यों में नही लगाना चाहिए। देश के हर राज्य में लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर और कामगार कोरोना के चलते अपने-अपने गांवों, कस्बों में लौटे हैं। इनमें बड़ी संख्या उन कामगारों की है जो किसी न किसी कौशल में दक्ष हैं।


आज कई महत्वपूर्ण परियोजनाएं कुशल कामगारों की कमी के कारण ही अटकी हुई हैं। जरूरत है मनरेगा का स्वरूप बदलने, कुशल श्रमिकों का वर्गीकरण करने और एक परियोजना के लिए निकटतम स्थान पर उपलब्ध कुशल श्रमिकों की पहचान करने की। फिर रोजगार भी मिल जाएगा और विकास परियोजनाएं भी शुरू हो जाएंगी। कोरोना संकट के शुरू होने के बाद भी अभी श्रमिकों को कौशल के आधार पर पहचान करने के कार्य में तेजी नहीं आई है। इसमें मेहनत लगती है और भ्रष्टाचार के अवसर कम होते हैंए इसलिए अफसरशाही को इसमें दिलचस्पी कम लग रही है। राजनीतिक नेतृत्व इसलिए रुचि नहीं ले रहा कि उनके छोटे कार्यकर्ताओं को उपकृत करने का साधन हाथ से निकल जाएगा।

हर कोई यह जानता है कि हमारे चिकित्सक और स्वास्थ्यकर्मी पिछले ढाई महीने से दिन रात योद्धाओं की तरह कोरोना पीडि़तों के उपचार में लगे हैं। बहुत से स्वास्थ्यकर्मी हफ्तों से अपने परिजनों से ठीक से मिले तक नहीं। उधर, उनके परिजन भी चिंतित हैं कि कोरोना का साया उनके स्वयं के परिवार पर न पड़ जाए। उनकी चिंता गलत भी नहीं है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्यकर्मिकों के संक्रमण की चपेट में आने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। हर युद्ध की एक अवधि होती है, लेकिन कोरोना में युद्ध की तो कोई समय सीमा ही नजर नहीं आ रही। ऐसे में अब स्वास्थ्यकर्मी भी अवकाश पर जाने की इच्छा करने लगे हैं तो इसे मानव स्वभाव का एक अंग ही माना जाना चाहिए। हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व को दूरदृष्टि से काम लेते हुए पहले से ही इस बारे में अनुमान लगा लेना चाहिए था और उपायों पर काम करना शुरू कर देना चाहिए था। पर ऐसा कहीं भी नहीं लग रहा।

सरकारी हो या निजी अस्पताल, चिकित्सा सेवा पर अचानक आए इस दबाव को सह नहीं पा रहे हैं। हाल ही में मुंबई में 1500 से ज्यादा नर्सें नौकरी छोड़ कर चली गईं। देश के दूसरे हिस्सों में भी यही हाल है। अभी तो चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मियों के पद पहले से रिक्त चल रहे हैं। उनको भरने की औपचारिकताएं अब शुरू हुई हैं। कोरोना के आगमन के दो माह बाद। जो काम ढाई महिने पहले होना थाए वह अब शुरू हुआ है।

प्रशासनिक सूझ.बूझ उसी को कहते हैं जब पूर्वानुमान लगा कर पूर्ण तैयारी कर ली जाए। स्वास्थ्यकर्मियों के साथ अस्पताल के सफाईए भोजन आदि से संबंधित कर्मियों की भी कमी आने वाली है। क्या हमारी सरकारें इस बारे में सोच रही हैंघ् क्या पलायन करके राज्य में आए लाखों कामगारों में से मध्यम दर्जे तक पढ़े.लिखे ऐसे युवाओं को नही चुना जा सकताए जिन्हें छोटा क्रैश कोर्स करा के ग्रामीण या शहरी चिकित्सा केन्द्रों में कोरोना मरीजो की सहायताए मौहल्ला वालंटियरए ट्रॉली खींचनेए भोजन बनाने और कपड़े धोने जैसे कार्य दिए जा सकें। मनरेगा के तहत रोजगार भी मिल जाएगा और स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव भी कम हो जाएगा।

अलग अलग तरह की समस्याओं के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से अभिनव उपायों और सूझ.बूझ की अपेक्षा की जाती है, पर अवऊसर प्राय: ‘संकट’ को खुद के लिए ‘अवसर’ में बदलने में व्यस्त रहते हैं। किन होटलों में क्वांरटीन मरीजों को भेजा जाए, किन निजी अस्पतालों को कोरोना मरीजों से मुक्त रखा जाएए मास्क और पीपीई किट किन ‘खास’ कंपनियों से खरीदा जाए, इसी उधेड़-बुन में उनका सारा समय और ऊर्जा खप जाती है। देश, राज्य और जनता के लिए सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती ! फुर्सत अब भी नहीं निकाली तो जनता की आहें न जाने किस-किस को जला देगी!

भुवनेश जैन

पिछले 41 वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता में। राजनीतिक, सामाजिक विषयों, नगरीय विकास, अपराध, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि विषयों में रूचि। 'राजस्थान पत्रिका' में पिछले दो दशकों से लगातार प्रकाशित हो रहे है कॉलम 'प्रवाह' के लेखक। वर्तमान में पत्रिका समूह के डिप्टी एडिटर जयपुर में पदस्थापित।

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