आर्ट एंड कल्चर : कलाओं को बनाएं मनोरंजन का आधार

कलाएं हमारे यहां रूप-रंगों से ही नहीं, उत्सवधर्मिता से भी जुड़ी रही हैं। मनोरंजन में कलाओं के लोक-आलोक से ही मन रंजित होता है।

<p>आर्ट एंड कल्चर : कलाओं को बनाएं मनोरंजन का आधार</p>

राजेश कुमार व्यास (कला समीक्षक)

मनोरंजन माने मन का रंजन, पर इधर मनोरंजन में कला पक्ष प्राय: गौण हो रहा है। कहने को रेडियो-टीवी सर्वाधिक मनोरंजन करने वाले माध्यम हैं, पर मनोरंजन के नाम पर वहां भौंडे लतीफे, नाग-नागिन, सास-बहू जैसे कभी न समाप्त होने वाले धारावाहिक परोसे जा रहे हैं। भावपूर्ण पारम्परिक नृत्यों के स्थान पर शरीर के अंगों की लोच के करतब और भयावह अपराध गाथाओं को दिखाने पर जोर है। विचार करें, इसी से युवापीढ़ी क्या तेजी से अवसादग्रस्त नहीं होती जा रही?

कलाएं हमारे यहां रूप-रंगों से ही नहीं, उत्सवधर्मिता से भी जुड़ी रही हैं। मनोरंजन में कलाओं के लोक-आलोक से ही मन रंजित होता है। नाट्य की हमारी समृद्ध परम्परा में विदूषक की उपस्थिति स्वस्थ मनोरंजन का कभी बड़ा आधार थी। संस्कृत नाट्य साहित्य के लोकप्रिय रूपक ‘मृच्छकटिकम्’ के एक प्रसंग में विदूषक से राजा कहते हैं, ‘कहानी सुनाओ।’ वह कहानी की शुरुआत करते हुए कहता है, ब्रह्मदत्त नाम का राजा है। काम्पिल्य नाम की नगरी। राजा सुधारता है, ‘मूर्ख, राजा काम्पिल्य, नगर बह्मदत्त।’ विदूषक इसको कई बार रटता है। इतने में राजा को नींद आ जाती है। ‘सहस्र रजनी चरित्र’ में राजा हर रात एक स्त्री की हत्या करवाता है। एक दिन राजा के महामंत्री की पुत्री स्वयं आग्रह कर राजा के पास जाती है। रात्रि में वह राजा को कहानी सुनाना प्रारंभ करती है। भोर होने तक वह हर रात कहानी को ऐसे मोड़ पर ले आती है कि उसे सुने बिना राजा रह नहीं सकता। कहानी में कहानी। कहानी में एक और कहानी। इस तरह से कहानियों का जो सिलसिला प्रारंभ होता है, वह निरंतर आगे बढ़ता रहता है। और एक रोज राजा का हृदय परिवर्तन हो जाता है।

‘कथा सरित्सागर’ की कथाएं भी कम मनोरंजक नहीं हैं। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ में मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथाओं के जरिए नीति संदेशों में भी रंजन हैं। हमारे यहां तो पहेलियां भी इसका बड़ा आधार रही हैं। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की पहेलियां बताई थीं। कहते हैं उसी से बाद में अमीर खुसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ीं। संगीत, नृत्य, नाट्य कलाएं स्वस्थ मनोरंजन का आधार हैं। इसलिए भी कि इनके ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ हैं और कोई भी समाज सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आगे नहीं बढ़ सकता। इस दृष्टि से टीवी-रेडियो माध्यमों में मनोरंजन का बड़ा आधार क्या कलाएं ही नहीं होना चाहिए?

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