विडंबना देखिए कि कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए जिन कोयला आधारित बिजलीघरों को सरकारें हतोत्साहित कर रही थीं, अब उन्हें ही जोर-शोर से चालू रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। क्योंकि एक ओर वैकल्पिक ऊर्जा क्षेत्र को उतना विकसित नहीं किया जा सका है कि यह जैव ईंधन का स्थान ले सके, तो दूसरी ओर गैर-परंपरागत स्रोतों, जैसे सौर या पवन ऊर्जा, के इस्तेमाल की लागत फिलहाल इतनी ज्यादा है कि प्रोत्साहन के बावजूद अपेक्षानुसार आकर्षित नहीं कर पा रही है। ‘जले पर नमकÓ यह कि उत्पादन प्रभावित होने के कारण कोयला महंगा हो गया है। जिन बिजलीघरों को आयात के कोयले से चलाया जा रहा था, उनके समक्ष उत्पादन रोकने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। कई निजी बिजली उत्पादकों ने बिजली उत्पादन बंद कर दिया है क्योंकि आयातित कोयले से उत्पादित बिजली के लिए कोई ज्यादा रकम देने को तैयार नहीं है।
कोयला आधारित बिजली खपत के मामले में चीन पहले तो भारत दूसरे स्थान पर है। चीन ने पिछले दिनों सख्त फैसला करते हुए कोयला आधारित बिजलीघरों को 15 अक्टूबर से औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्र के लिए बदलते बाजार मूल्यों पर बिजली बेचने की छूट दे दी है। यानी लागत ज्यादा तो बिजली की कीमत ज्यादा। चीन के लिए ऐसा करना आसान है, पर भारत की लोकतांत्रिक सरकार ऐसा फैसला कर लोकप्रियता कम नहीं कराना चाहेगी। भारत सरकार तो कोयले की कमी से बिजली उत्पादन पर असर भी मानने को तैयार नहीं है। समस्या का तात्कालिक समाधान भले ही निकाल लिया गया हो, पर स्थायी समाधान तब तक नहीं निकलेगा जब तक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को ही मुख्य ऊर्जा स्रोत मानकर इसे सहज और किफायती नहीं बनाया जाता।