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वैराग्य के मूल में विराग है

वैराग्य जब भीतर उतरे तो मन को गहना, उसके बहकावे पर ध्यान देना कि कहीं यह कलाई थाम किसी कुटिल प्रेमी की तरह अवसाद की राह पर अकेला तो नहीं छोड़ आने वाला।

जयपुरJul 24, 2018 / 01:20 pm

विकास गुप्ता

वैराग्य जब भीतर उतरे तो मन को गहना, उसके बहकावे पर ध्यान देना कि कहीं यह कलाई थाम किसी कुटिल प्रेमी की तरह अवसाद की राह पर अकेला तो नहीं छोड़ आने वाला।

रहना नहीं देस बिराना(बेगाना, पराया) है! बैराग, वैराग्य, विराग किसी भी राग की अंतिम परिणति है। कोई छूटे तो छूटने देना कि यह नियति का , उस अदृश्य सत्ता का संकेत मात्र। यहाँ तो हर चीज़ का प्रतिरूप है और हर कृत्य भी अभिनय मात्र। कोई इसी अभिनय को जीते-जीते नायक हो जाता है , तो कोई कच्चा खिलाड़ी साबित हो नेपथ्य में खड़ा हो जाता है पर नेपथ्य के नायक ही इस रंगमंच पर सबसे सबल सिद्ध हुए हैं। वैराग्य क्षणिक भी , वैराग्य स्थायी भी । वैराग्य जब भीतर उतरे तो मन को गहना, उसके बहकावे पर ध्यान देना कि कहीं यह कलाई थाम किसी कुटिल प्रेमी की तरह अवसाद की राह पर अकेला तो नहीं छोड़ आने वाला। तो वैराग्य के मूल में विराग है, बीतता राग है।

#राग शब्द रञ्ज् +धञ् से बना है जहाँ रंञ्ज् का तात्पर्य रंग से है, उल्लास से है, आनन्द से है, प्रियता और सौन्दर्य से है। यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि क्रोध और रोष को भी राग ही कहा गया। वहीं विराग राग का विलोम है । वि उपसर्ग के योग एवं विरहित होने के भाव से यह विराग बना।

ठीक विमल शब्द की ही तर्ज़ पर ‘विगतो मलो यस्मात् स: विमलम्।’

विराग अर्थात् जिसका रंग बदल गया हो, जो विवर्ण हो गया हो, अध्यात्म जगत् में जो आसक्ति से दूर हट गया हो, जो सांसारिक विषयों से दूर हट गया हो। #विराग का अर्थ ही अरुचि भी हुआ को अनिच्छा भी। विराग का अर्थ वृत्ति परिवर्तन भी हुआ। मन की वृत्तियों के अनुशासन की बात योग करता है।

क्वहाँ लिष्ट और अक्लिष्ट रूप से वृत्तियाँ पाँच प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख इस प्रकार है;यथा- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति । प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम- ये ‘प्रमाण’ हैं ,वस्तु में किसी अन्य वस्तु का मिथ्या ज्ञान ‘विपर्यय’ है ।वस्तु के न होने पर भी शब्द मात्र से होने वाला ज्ञान ‘विकल्प’ है । वहीं अभाव के प्रत्यय को ग्रहण करने वाली वृत्ति ‘निद्रा’ है तथा अनुभूत विषय , जिए हुए विषय को न भूलना ही ‘स्मृति’ है ।

कह सकते हैं कि #विराग राग को विराधता है। (विराध का अर्थ विरोध से ही है।)

विराग ही #वैराग्य का मूल है। वृत्तियों का निरोध वैराग्य से ही होता है। कहा भी गया है कि विरागस्य भाव: वैराग्यम्। वैराग्य समाधि का #विरूहै , विरू जो अंकुरित हुआ है , जिसे उगाया गया है। विरू शब्द के ही कुछ आगे चले तो #विरूपाक्ष का उल्लेख सावन की दहलीज़ पर ना करें तो शिव इस शिवप्रिया से रूठ सकते हैं। शिव वैराग्य के चरम भी, सच्चे साधक भी और सच्चे मीत भी।

रूप का विलोम #विरूप अर्थात् जो विकृत रूप को, अप्राकृतिक रूप को वहन करता है वह विरूप। अक्ष शब्द की नेत्र अर्थ में अर्थध्वनि व विरूप में संयोग से #विरूपाक्ष बना जिसका अर्थ विषम संख्या में नेत्र होने से शिव का एक विशेषण बना।

#बैराग शब्द #वैराग्य का लोक में प्रचलित शब्द है। जो व्यक्ति विराग से युक्त हुआ वही बैरागी हुआ, उसी का स्त्री रूप बैरागिन हुआ।

कबीर चदरिया को ज्यों का त्यों धरने के लिए इसी वैराग्य या बैराग की बात करते हैं-

“धोबिया हो बैराग।
मैली हो गुदरिया धोबिया धो दो हो॥”

पर नहीं मालूम कहाँ वो विकारों को दूर करने वाला और स्वयं के राग में रंगने वाला रंगरेज़ी बसता है और कहाँ ही जाने ऐसा घाट लगता है।

विमलेश शर्मा

– फेस बुक से साभार

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