नए भारत का निर्माण

भारत का संघर्ष ‘गरीबी में आटा गीला’ जैसी स्थिति से जूझने जैसा है। हमारे सामने अधिकांश पश्चिमी देश विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं। भारत विकसित नहीं है। आर्थिक हालात कागजों में कुछ भी हों, हम विकासशील ही हैं।

<p>Lock down from corona</p>

– गुलाब कोठारी

भारत का संघर्ष ‘गरीबी में आटा गीला’ जैसी स्थिति से जूझने जैसा है। हमारे सामने अधिकांश पश्चिमी देश विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं। भारत विकसित नहीं है। आर्थिक हालात कागजों में कुछ भी हों, हम विकासशील ही हैं। कोरोना ने हमको व्यावहारिक दृष्टि से और भी पीछे धकेल दिया है। आने वाले समय में तो ‘नंगा क्या धोए, क्या निचोड़े’ जैसे दिन काटने पड़ेंगे। देश को नए सिरे से खड़ा होना पड़ेगा। आजादी की जंग का जज्बा कुछ और ही था। स्वतंत्रता के नाम पर जो स्वच्छन्दता का, भ्रष्टाचार का, अंग्रेजियत का और राजनीतिक अराजकता का वातावरण बना, उसने स्वतंत्र भारत के सपनों को चूर-चूर कर दिया।

सबसे पहली मार तो उस अखण्डता को पड़ी जिसके नाम पर यह संघर्ष रंग लाया। आज देश खण्ड-खण्ड है। कानून का सम्मान भी खण्ड-खण्ड हो गया। अभी लॉकडाउन में भी कानून का उल्लंघन जगह-जगह देखा जा सकता है। हम आजादी के बाद माटी से जुड़े या दूर हो गए। लोकतंत्र की स्थापना हो गई। जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए। कितना अच्छा नारा दिया गया। लोकतंत्र के तीन पाए जनता के द्वारा पोषित किए जाएंगे और देश को जनहित का एक सुदृढ़ और संकल्पित शासन देंगे। पिछले सत्तर वर्षों में किसी राजनीतिक दल ने सत्ता-स्वार्थों से उठकर देश की अखण्डता और ‘जनता के लिए’ किए गए उद्घोष को प्राथमिकता नहीं दी।

रहा सहा कोरोना खा गया। अब सरकारी कर्मचारी ड्यूटी पर आने के लिए अलग और काम करने के लिए अलग मोल मांगने लगा। उसमें भी दरारें और अनेक छेद हो गए। दूसरी ओर कर्मचारियों की भर्तियां बंद हैं, केवल अधिकारियों की ही भर्ती हो रही है। कोरोना ने सबको घर भेज दिया। काम-काज ठप हो गया। देश बेरोजगार हो गया। धनाढ्य भी हिल गए हैं। क्या हम लॉकडाउन के उठने पर चल पड़ेगे? कभी भी नहीं! हमारी सरकारी मानसिकता साथ नहीं देती। न जाने क्यूं वह स्वयं को जनता का अंग मानकर काम नहीं करती। अधिकारी, विशेषकर केन्द्र शासित वर्ग स्वयं को सरकारों से भी ऊपर मानता है। कानून बनाने में हमारे जनप्रतिनिधि प्रभावी नहीं हो पाते। अत: हमारे अधिकतर कानून विकसित देशों की तर्ज पर बने होते हैं, जो हमारी आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से मेल तक नहीं खाते, किन्तु कानून बन जाते हैं। इस स्तर का सारा चिन्तन अंग्रेजियत से प्रभावित है। तीनों पाए भी और मीडिया भी। इसलिए अधिकांश मीडिया भी स्वयं को सरकार (चौथा पाया) घोषित कर बैठा। जनता का कौन बचा?

हमारी अर्थव्यवस्था आज केवल चरमरा ही नहीं गई बल्कि पैंदे बैठती दिखाई दे रही है। आज की चक्काजाम स्थिति से बाहर निकलने के लिए युद्ध स्तर पर, विकसित देशों की तरह नए सिरे से तपना पड़ेगा। आज भी सरकारें विलासिता के नशे में डूबी हैं। आज की अर्थव्यवस्था पहले पेट भरे। ‘घर में नहीं हैं दाने, अम्मा चली भुनाने’। कानूनों पर भी पुनर्विचार करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बने। आधे से अधिक सदस्य भारतीय सांस्कृतिक-आर्थिक धरातल को जीने वाले हों।

हमें फिर से पुरानी जीवन शैली पर आना चाहिए। पांच दिन के स्थान पर पुन: छह दिवस के कार्य दिवस लागू होने चाहिए। धर्म-सम्प्रदायों से जुड़े सारे अवकाश ऐच्छिक हो जाने चाहिएं। केवल आठ-दस राष्ट्रीय अवकाश रहें बस! स्थानीय अवकाशों पर भी पुनर्विचार किया जाए। कोरोना ने देश में पहली बार एक नई कार्य संस्कृति घर से कार्य (वर्क फ्रॉम होम) करने की विकसित की है। इसे सही दिशा दी जाए तो भारत जैसे देश में यह पद्धति मितव्ययिता एवं विकास को बड़े आयाम दे सकती है। आज टेक्नोलॉजी ने यह संभव कर दिया है कि सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में बहुत से काम कर्मचारी घर बैठे-बैठे भी कर सकते हैं। उनके आकलन, नियंत्रण, समीक्षा के भी तरीके टेक्नोलॉजी में उपलब्ध हैं। टेक्नॉलोजी के माध्यम से होने वाले कार्यों में पारदर्शिता भी पूरी रहती है और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की तो स्वत: पालना हो जाती है। जरा सोच कर देखिये (वर्क फ्रॉम होम) के कारण कितनी बड़ी संख्या में सरकारी भवन खाली हो सकते हैं। इन भवनों का उपयोग अस्पताल, स्कूल और अन्य जनसुविधाओं के लिए किया जा सकता है। दफ्तर आना जाना कम हो जाएगा तो सडक़ों पर वाहनों की संख्या भी आधी से कम रह जाएगी जिसका सीधा लाभ प्रदूषण मुक्ति के रूप में मिलेगा। बिजली, ईंधन, जल जैसे आवश्यक संसाधनों की भी बचत होती है। इन सबसे प्रकृति की शुद्धता भी बनी रहती है। लॉकडाउन के दौरान देश भर में प्रदूषण के स्तर में आई गिरावट इसका प्रमाण है। ‘पत्रिका’ के देश भर में फैले दफ्तरों में भी पिछले लगभग एक महीने से (वर्क फ्रॉम होम) के माध्यम से अधिकांश कार्य सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं।

केन्द्र सरकार के सामने एक स्पष्ट उदाहरण आया कि नेतृत्व यदि नियमित रूप से जनता को सम्बोधित/प्रेरित करता है, तो मुर्दा भी बोलने लगता है। अफसरों को भारतीय बनाने के लिए श्रम और शक्ति बहुत लगानी पड़ेगी। तब जाकर भारत पुन: भारतीय स्वरूप को प्राप्त हो सकेगा। मोदी जी इस कोरोना को हरा सकते हैं।

लॉकडाउन खुलने का अर्थ होगा नया चिन्तन नई जीवनशैली तथा नई जागरूकता। खुलने की शुरूआत ही भीड़ भरे वातावरण में होने वाली है। मजदूरी, खेती, परिवहन, बाजार आदि सभी भीड़ के स्थान हैं। शहरी और ग्रामीण भीड़ में भी अन्तर होगा। बसों की भीड़ और मण्डियों की भीड़ में अन्तर होता है। मण्डियों में तो पशु भी होते हैं। ऐसा न हो लालफीताशाही सारे अरमानों पर पानी फेर दे। अभी तक न सब जगह राशन ही पहुंच पाया है, न ही मास्क। अत:आदेशों की अनुपालना व्यावहारिक होनी चाहिए।

राजनीति का दबाव जैसा चित्तौडगढ़ में नजर आया, विधायक विधुड़ी की कार का चालान किया तो मुहं पर तारीफ की और तुरन्त महिला अधिकारी का स्थानान्तरण। क्या ऐसे जनप्रतिनिधियों से समाज को कोई उम्मीद रखनी चाहिए जो लॉकडाउन में भी चार-चार गाडिय़ां साथ लेकर चलता हो और कानून को मुट्ठी में रखता हो। उसके खिलाफ कार्रवाई न होना भी जनता के विश्वास को तोडना ही है। जयपुर के कांग्रेसी विधायक अमीन कागजी पर क्या कार्रवाई हुई? क्यों सत्ताधारियों को असीमित पास देकर हम कानून की धज्जियां उड़ा देने को सहमत हो जाते हैं? प्रभावशाली लोग कार पास लेकर गलत कार्यों में दुरुपयोग कर रहे है। गरीबों को तो बिना पहचान राशन तक नहीं दिया जाता। भले ही भूखे मर जाएं।

अमरीका विशेषज्ञ माइकल ऑस्टहोम्ज ने तो यहां तक कहा है कि टीका आने में और कोरोना की प्रभावी रोकथाम में दो साल तक लग सकते हैं। इस बीच यह चीन, हांगकांग, सिंगापुर, ताईवान जैसे एशियाई देशों की तरह पुन:आक्रामक हो सकता है। यह तूफान, भूकम्प जैसी आपदा नहीं है कि एक बार में ही चली जाए। इस पर देश-काल का बन्धन लागू नहीं होता। अत: हमारी चिंता केवल यह होनी चाहिए कि हम बाहर कैसे निकलें। इस बारे में पुराना कोई अनुभव तो है नहीं। एक ही बात समझ में आती है कि भीड़ बेकाबू होगी। क्या टेस्ट करने और सभी चिन्हित रोगियों को अस्पताल/डॉक्टर्स उपलब्ध हो सकेंगे? कठिन तो है ही। वायरस स्वयं तो आक्रामक बना ही रहेगा। अपने आप मरने वाला तो है नहीं। अत: इस चुनौती का सामना करने के लिए कम से कम 6-10 माह आगे तक की स्वास्थ्य योजना तैयार रखनी चाहिए। निर्णय ठोक बजाकर ही लिए जाएं। पूरे देश को तब तक एकजुट रहना अनिवार्य है जब तक आश्वस्त न हो जाएं कि हां, अब कोरोना मर गया। स्वास्थ्य कर्मियों, वारियर्स का भी सबको मिलकर पूरा ध्यान रखना है।

विशेषज्ञों का कहना है कि भले ही यह वायरस बैक्टेरिया से कम हानिकारक है, किन्तु पकड़ में आने तक हमारी कोशिकाओं ‘सेल्स’ को बड़ा नुकसान पहुंचा देता है, जिनको पुन: ठीक नहीं किया जा सकता। इसके प्रतिफल में ‘Cyto Kine’ नामक अतिवेग से हानि पहुंचा देता है जो इंफेक्शन से भी अधिक होती है। जबकि सारी चिकित्सा इंफेक्शन को दूर करने के लिए ही की जाती है।

भारत में सार्वजनिक अनुशासन एवं शिक्षा का अभाव भी नकारा नहीं जा सकता। लॉकडाउन हटने की प्रक्रिया गंभीर प्रशासनिक हाथों में ही रहनी चाहिए। पद गंभीर हों आवश्यक नहीं हैं, राजनीति गंभीर हो, यह भी आवश्यक नहीं है, अनुभव के आधार पर निर्णय लिए जाएं, जीवन को बचाया जा सके, यह पहली आवश्यकता है।

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