राजस्थान पत्रिका हिंदी हैं हम : जानिए कितना महत्त्वपूर्ण है लेखन की विरासत को समझना

आवश्यक है परंपरा का सान्निध्य…लेखन के लिए जरूरी है कि प्राचीन लेखन और लेखकों से हमारा जुड़ाव हो। उनको पढ़कर लेखन को समृद्ध और प्रभावी बनाया जा सकता है। साहित्यकार माधव हाड़ा बता रहे हैं कितना महत्त्वपूर्ण है लेखन की विरासत को समझना।

<p>राजस्थान पत्रिका हिंदी हैं हम : जानिए कितना महत्त्वपूर्ण है लेखन की विरासत को समझना</p>

माधव हाड़ा, (साहित्यकार)

हिन्दी में यह धारणा अधिकांश नए लेखकों में आम है कि साहित्य अनायास होता है और उसके लिए पारंपरिक होना दकियानूसी है। हिन्दी के अधिकांश नए लेखक इसलिए अपनी विरासत और परंपरा की तरफ पीठ करके चलते हैं। किसी भी नए रचनाकर की रचना अच्छी तब होती है, जब उसका परंपरा के साथ सम्मान और द्वंद्व, दोनों तरह का रिश्ता हो। उसकी रचना अलग और नई हो, इसके लिए यह जरूरी है लेखक परंपरा की जमीन में उसके खाद-पानी के साथ उगे और बढ़े।

हिन्दी का प्राचीन ही नहीं, नया अतीत भी बहुत समृद्ध है, लेकिन दुखद यह है कि नया लेखक इसके सान्निध्य से बचता है। जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह दिनकर, कृष्णा सोबती, सआदत हसन मंटो, प्रेमचंद, सुभद्राकुमारी चौहान, रामचंद्र शुक्ल, धर्मवीर भारती आदि हमारा निकट अतीत हैं। प्रसाद और प्रेमचंद ने हिन्दी भाषा और साहित्य को अपने पांवों पर खड़ा किया। प्रसाद के सरोकारों में परंपरा और संस्कृति को प्रमुखता मिली, तो प्रेमचंद ने अपने समय के समाज को ज्यादा महत्त्व दिया। मंटो और कृष्णा सोबती, दोनों रचनाकार विभाजन की त्रासदी में से निकले और दोनों ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा। कृष्णा सोबती की भाषा में जीवन का पड़ोस था। दिनकर और सुभद्राकुमारी सही मायने में ‘युग चारण’ थे – उनकी कविता में हमारे निकट अतीत की धड़कन सुनी जा सकती है। धर्मवीर भारती कवि तो बड़े थे ही, उन्होंने हमारे लिए साहित्यिक पत्रकारिता का आदर्श भी कायम किया। हमारे यहां भरत से लगाकर विश्वेशर पंडित तक साहित्य के शास्त्र की दो हजार वर्ष से अधिक लंबी और समृद्ध परंपरा थी। हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रस्थान के दौर में उसको रामचंद्र शुक्ल ने पुनर्नवा किया।

साहित्य की यह समृद्ध विरासत हमारे नए रचना कर्म का आदर्श और प्रस्थान, दोनों है। यह सही है कि हर रचनाकर अपनी धुरी पर अपनी रचना साधता है और उसकी रचना भी पहले से अलग और नई होती है, लेकिन ऐसी कोई रचना परंपरा के बाहर नहीं होती। परंपरा संस्कार की तरह है और यह किसी रचनाकार की निर्मिति में ईंट-चूने की तरह है, इसलिए रचना में भी उसका निवेश बहुत स्वाभाविक है। अपनी विरासत और परंपरा की तरफ पीठ करके भी लोग लिखते ही हैं, लेकिन परंपरा के खाद-पानी के बिना उनकी रचनाएं जल्दी दम तोड़ती हैं।

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