गलती राहुल गांधी की नहीं, आंगन ही हो गया टेढ़ा

राहुल का यह कहना कि यह विचारधाराओं की लड़ाई है, एक तरफ कांग्रेस है और दूसरी तरफ भाजपा, गलत है। सच तो यही है कि दोनों तरफ कांग्रेस ही है। वह कांग्रेस जो सत्याग्रही नहीं, सत्ताग्रही है। यह कांग्रेस उस गांधी परिवार की नहीं, जिसमें नेहरू भी शामिल थे। यह वह कांग्रेस है जिसमें नेहरू भी अजनबी हैं।

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‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ कहावत तो आपने सुनी होगी। अक्षम व्यक्तियों को ताना देने के लिए इस कहावत का इस्तेमाल होता है। पर, बात अगर कांग्रेस के दुलारे राहुल गांधी की हो तो यही कहना निर्दोष होगा कि जो ‘नाच’ वह दिखाना चाहते हैं, बिलकुल ठीक है पर, अब राजनीति का आंगन ही टेढ़ा हो गया है। विडंबना सिर्फ इतनी ही है कि इस आंगन को टेढा करने की शुरुआत उनकी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही की थी।
मध्यप्रदेश के युवा नेता और अपने सहपाठी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दगाबाजी के बाद प्रतिक्रिया देते हुए राहुल का यह कहना ‘नादानी’ ही है कि ‘…मैं उनकी आइडियोलॉजी जानता हूं। वह मेरे साथ कॉलेज में थे। उन्होंने अपनी विचारधारा को जेब में रख दिया है। … भाजपा में उन्हें सटिस्फैक्शन नहीं मिलेगा…’ सच तो यही है कि सिंधिया ने जो किया वही कांग्रेस का चरित्र बन चुका है। इसीलिए सिंधिया ही नहीं, उनके भक्त 22 अन्य विधायकों ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस अब जहां पहुंच गई है, उसमें राहुल-प्रियंका अजनबी-से दिखते हैं।
राहुल जिसे कांग्रेस की विचारधारा समझ रहे हैं, स्वयं कांग्रेस ही उससे वर्षों पहले मुक्त हो चुकी है। वह विचारधारा जिस पर चलते हुए देश को आजादी मिली, जिसके मूल्यों को भारत का पर्याय समझा गया, जिसने भारतीय राष्ट्रवाद को जन्म दिया, जिसमें नीचे से ऊपर तक लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अटूट आस्था थी और जो सत्ता की हनक नहीं, सेवा-भाव से लवरेज थी।
अपनी सत्ता बचाने और पार्टी में अपना एकछत्र दबदबा कायम करने के लिए सबसे पहले अंदरूनी लोकतंत्र को तमाशा बनाया गया, उसके बाद कांग्रेस को ऐसे घोड़े पर सवार कर दिया गया जिसका लक्ष्य हर तरह के मूल्यों को ताक पर रखकर सत्ता की दौड़ जीतना था। याद कीजिए जब संगठन के फैसले के खिलाफ जाकर वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाने के लिए 1969 में कांग्रेस को दो हिस्सों में बांट दिया गया। उसके बाद संगठन को नियंत्रित करने के लिए लोकसभा का चुनाव विधानसभा चुनावों से अलग कराया गया। सत्ता पर पकड़ मजबूत होते ही, संगठन भी स्वतः कब्जे में आ गया। मूल्यों की राजनीति करने वाले दरकिनार होते गए, चापलूसों-दरबारियों की पौ-बारह होती गई और सत्ता का घोड़ा दौड़ता रहा। भारतीय राजनीति में आज भी वही घोड़ा दौड़ रहा है। सिर्फ सवार बदल रहे हैं।
राहुल गांधी जब विचारधारा की बात करते हैं तो वह बाद वाली कांग्रेस से या तो अनभिज्ञ लगते हैं या घालमेल करते प्रतीत होते हैं। दरअसल राहुल की कथनी और कांग्रेस की करनी का मेल नहीं बैठ पा रहा है। वह गरीबों की बात करते हैं तो लोगों को इंदिरा गांधी का ‘गरीबी हटाओ नारा’ जैसा लगता है, जो कांग्रेस के लंबे शासन में कभी हटी नहीं। जब वह बदहाल अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो आपातकाल से पहले की बदहाली याद आती है जिसके खिलाफ जनाक्रोश उमड़ा था। जब वह लोकतंत्र व तानाशाही की बात करते हैं तो आपातकाल का भूत प्रकट हो जाता है। और जब ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का रोना रोते हैं तो मनमोहन सिंह के समय नेता-दलाल-उद्योगपति गठजोड़ में बढ़ रही जीडीपी मिमियाने लगती है।
विचारधाराएं चौखानों में आगे नहीं बढतीं, गोल-गोल आरोह-अवरोह के साथ एक-दूसरे को आगे ठेलते हुए यात्रा करती हैं। चौखानों में साजिशें पलती-बढ़ती हैं। पार्टी में लोकतंत्र न हो तो देश के लोकतंत्र पर चिंता आडंबर से ज्यादा नहीं समझी जाएगी। संघ की विचारधारा को कोसने से पहले उसकी प्रतिबद्धता को समझना होगा। सेवादल के रूप में प्रतिबद्ध जमात जो कांग्रेस में भी थी,1969 से बाद कहां गई, उसे खोजना होगा। शाहबानो और राममंदिर का दांव उल्टा पड़ने के बाद (राजीव गांधी काल) मंदिर-मस्जिद घूम-घूमकर धर्मनिरपेक्षता का पहरुआ बनने की कोशिश भला चुनावी कबड्डी से ज्यादा मायने क्यों रखेगी?
राहुल लगातार महात्मा गांधी वाली कांग्रेस की विचारधारा की बात कर रहे हैं जबकि वर्तमान कांग्रेस ऐसी जमात में बदल चुकी है जिसे सरकार में बने रहने के जुगाड़ के अलावा कुछ आता ही नहीं है। अभी कमलनाथ सरकार गई नहीं कि मध्यप्रदेश कांग्रेस ने ट्विट करके चैलेंज दिया कि ‘15 अगस्त को कमलनाथ ही झंडा फहराएंगे।’ बस यह नहीं बताया कैसे और किन महान वैचारिक मूल्यों पर चलते हुए?
साफ है कि राजनीति के आंगन में सत्ता का नाच चल रहा है। यहां ‘क्लासिकल डांस’ दिखाने की हिमाकत अपरिपक्वता ही कही जाएगी। ऐसा करने के लिए पहले आंगन सीधा करना होगा। राहुल का यह कहना कि यह विचारधाराओं की लड़ाई है, एक तरफ कांग्रेस है और दूसरी तरफ भाजपा, गलत है। सच तो यही है कि दोनों तरफ कांग्रेस ही है। वह कांग्रेस जो सत्याग्रही नहीं, सत्ताग्रही है। यह कांग्रेस उस गांधी परिवार की नहीं, जिसमें नेहरू भी शामिल थे। यह वह कांग्रेस है जिसमें नेहरू भी अजनबी हैं। इसलिए, संघ-भाजपा से नहीं, कांग्रेस को पहले अपने आप से ही मुकाबला करना होगा। बुजुर्ग और युवा नेतृत्व की छोटी-सी अंदरूनी लड़ाई में मैदान छोड़ देने वाले नादान राहुल गांधी को ही इसके लिए जिम्मेदार क्यों माना जाए?
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