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आधी आबादी: क्या वाकई औरत ही औरत की दुश्मन होती है?

– विचारणीय बात यह है कि जो खुद शोषित एवं शक्तिहीन है, वह किसी दूसरे के शोषण का सूत्रधार कैसे हो सकती है?- पितृसत्ता दमन चक्र को बनाए रखना चाहती है।

Mar 15, 2021 / 09:06 am

विकास गुप्ता

आधी आबादी: क्या वाकई औरत ही औरत की दुश्मन होती है?

रश्मि भारद्वाज (लेखक, अनुवादक, स्त्री विमर्शकार)

हमने अपने आस-पास, परिवार, समाज में यह वाक्य कई बार सुना होगा कि औरत ही औरत की दुश्मन है। जब भी किसी स्त्री का शोषण होता है या उसके साथ मानसिक, शारीरिक दुराचार होता है, यह बात अक्सर दुहराई जाती है। प्राय: परिवार, कार्यस्थल आदि जगहों पर ऊपरी तौर पर देखे जाने पर यह बात सच भी लगती है। एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन बनी नजर आती है।

हालांकि स्त्रीवाद के बारे में फैली अन्य भ्रांतियों की तरह यह मान्यता भी उतनी ही असत्य है। इस तरह की विचारहीन, गैर जिम्मेदार पंक्ति उछाल कर पितृसत्ता अपने दमन चक्र को बनाए रखना चाहती है और उसका गुनाह भी अपने सिर नहीं लेना चाहती। विचारणीय बात यह है कि जो ख़ुद शोषित एवं शक्तिहीन है, वह किसी दूसरे के शोषण का सूत्रधार कैसे हो सकती है? दमन चक्र की एक कड़ी की तरह वह दमन की शृंखला को जाने-अनजाने आगे बढ़ाने में मददगार जरूर हो सकती है, उसकी नियमावली तैयार करने वाला कोई और ही होता है। अक्सर परिवार के स्तर पर हम देखते हैं कि घर में सत्तासीन स्त्रियां दूसरी कमजोर एवं अधीन स्त्रियों के जीवन को कठिन बनाते रहने की गुनहगार बन जाती हैं। हालांकि उन्हें सत्तासीन कहना भी एक तरह का अन्याय ही है। सत्ता या ताकत हमेशा किसी दूसरे के हाथ में होती है और वह अपने प्रतिनिधि के तौर पर उसका कुछ हिस्सा किसी को दान या भीख में दे देता है। कमोबेश यही हालात कार्यक्षेत्र में भी होते हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठी पितृसत्ता के पास स्त्रियों के लिए अनेक लुभावने प्रस्ताव हैं।

सभी सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक दबाव वहीं से प्रसारित किए जाते हैं। उस सत्ता की मनपसंद स्त्री ‘टोकन विमिन’ बनकर लाभ का कुछ हिस्सा पा जाने की महत्त्वाकांक्षा में कई बार स्त्रियां शोषण चक्रका स्वैच्छिक अंग भी बन जाती हैं। दूसरी प्रतिभाशाली स्त्री कहीं अपनी प्रतिभा या गुणों से सत्ता की मनचीती न बन जाए, यह जलन भी लगातार कुछ स्त्रियों के ऊपर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखती है। भीख या दान में मिलने वाली सत्ता की दौड़ में सबसे आगे बढऩे के लिए फिर कुछ स्त्रियां हर उपाय, हर दांव आजमाती हैं। वह किसी भी तरह आगे बढ़ रही दूसरी स्त्री के कदम रोक लेना चाहती है।

सवाल यह है कि फिर क्या ऐसी ‘गुमराह’ स्त्रियों को अपना दुश्मन मानकर दरकिनार कर दिया जाए? वे दुश्मन तो कतई नहीं हैं। बस अपनी निर्मिति के अत्यधिक प्रभाव में और स्वार्थवश वे सही रास्ता न स्वयं खोज पा रहीं, न दूसरी स्त्रियों को ऐसा करते देख पा रही हैं। जरूरी है कि उनसे सहानुभूति रखते हुए एक बृहत् बहनापे की परिकल्पना को हमेशा साकार करने की कोशिश की जाए। साथ नहीं चल पा रही हों, तब भी साथ चलने का स्वप्न बना रहे।

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