इन दिनों कांग्रेस और भाजपा के बीच यूपीए और मौजूदा एनडीए सरकारों के कार्यकाल में आर्थिक विकास की रफ्तार को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है। एक पक्ष का दावा यह कि उनके समय में अर्थव्यवस्था की विकास दर ज्यादा तेज थी तो दूसरे पक्ष का प्रतिदावा यह कि उनकी सरकार के दौरान विकास दर की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर है।
असल में, पिछले सप्ताह राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग (एनएससी) की एक समिति ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर के आकलन के लिए आधार वर्ष में बदलाव होने के कारण वर्ष 2004-05 से लेकर 2011-12 के दौरान वृद्धि दर की नई और संशोधित सीरीज जारी की। इसके मुताबिक यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल (2004-05 से 2008-09) में जीडीपी की सालाना औसत वृद्धि दर 8.87 फीसदी और दूसरे कार्यकाल (2009-10 से 2013-14) में 7.39 फीसदी थी। इसके मुकाबले मौजूदा एनडीए सरकार के पहले चार साल (2014-15 से 2017-18) में जीडीपी की सालाना औसत वृद्धि दर मात्र 7.35 फीसदी रही।
स्वाभाविक तौर पर इन आंकड़ों से कांग्रेस और यूपीए सरकार के समर्थकों के हौसले बुलंद हैं। वे इन आंकड़ों को अपनी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की सफलता के सबूत के रूप में पेश कर रहे हैं। हालांकि भाजपा और एनडीए समर्थक उसमें मीन-मेख निकालने और आंकड़ों के तुलनात्मक न होने से लेकर यूपीए की तुलना में अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन की दलीलें दे रहे हैं, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि चुनावी वर्ष में इन आंकड़ों ने एनडीए सरकार की नींद उड़ा दी है। उसके लिए इन आंकड़ों से लड़ पाना मुश्किल हो रहा है। इसकी वजह यह है कि खुद मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन की सबसे बड़ी कसौटी जीडीपी की वृद्धि दर की रफ्तार को मानती रही है।
लेकिन यह पूरी बहस बेमानी है और असल मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश है। मुद्दा यह नहीं है कि किस सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था की वृद्धि की रफ्तार सबसे तेज थी। मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार का आम लोगों खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों को कितना लाभ मिला, उनकी आर्थिक स्थिति में कितना सुधार हुआ, गरीबी कितनी कम हुई, कितने बेरोजगारों को रोजगार मिला और शिक्षा/स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी जैसी बुनियादी जरूरतें किस हद तक पूरी हुईं। गरज यह कि तेज आर्थिक विकास के समुद्र मंथन से निकली अकूत संपदा में अमीरों को क्या और कितना मिला और आम लोगों-गरीबों के हिस्से क्या और कितना आया?
ये सवाल जरूरी हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की रफ्तार सिर्फ रफ्तार की उत्तेजना के लिए नहीं है। अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार का मकसद आम लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाना है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि तेज और आकर्षक वृद्धि दर के बावजूद पिछले डेढ़ दशक में देश में गरीबी में अपेक्षा से कहीं कम गिरावट आई है। तथ्य यह है कि अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा इसे ‘रोजगारविहीन विकास’ मानता है।
यही नहीं, देश में आर्थिक गैर बराबरी और विषमता तेजी से बढ़ी है। इसका अनुमान आयकर विभाग की ओर से वर्ष 2013 से 2016 के बीच कोई पांच करोड़ आयकरदाताओं के आय के वितरण से लगाया जा सकता है। आर्थिक विश्लेषक प्रवीण चक्रवर्ती ने एक लेख में बताया है कि आज भारत में पांच फीसदी सुपर अमीर आयकरदाताओं की कुल आय बाकी 95 फीसदी आयकरदाताओं की कुल आय के बराबर है।
इसी साल जनवरी में जारी एक रिपोर्ट में आक्सफैम ने खुलासा किया कि वर्ष 2017 में देश में पैदा हुई कुल संपदा का 73 फीसदी सर्वाधिक अमीर एक फीसदी आबादी के हिस्से चला गया जबकि नीचे से 50 फीसदी आबादी (67 करोड़ भारतीयों) को सिर्फ एक फीसदी में गुजारा करना पड़ा। फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और लूकस चांसल के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में पिछले 92 वर्षों में आज सर्वाधिक आर्थिक गैर बराबरी है। उनके अनुसार पिछले तीस वर्षों में दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में सर्वाधिक अमीर एक फीसदी लोगों के हाथ में आय का सबसे अधिक केन्द्रीकरण हुआ है। इसका अंदाजा फोब्र्स पत्रिका की दुनिया भर के डॉलर अरबपतियों की सूची में भारतीय अरबपतियों की तेजी से बढ़ती संख्या से भी लगाया जा सकता है।
इन रिपोर्टों और अध्ययनों से साफ है कि तीव्र आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में दो भारत बन रहे हैं, जिनके बीच की खाई लगातार गहरी हो रही है और फैलती जा रही है। इस मामले में यूपीए और मौजूदा एनडीए सरकार दोनों ही नाकाम साबित हुई हैं। यह किसी दैवीय कारण से नहीं बल्कि उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण हो रहा है जिनका खुला समर्थन यूपीए और एनडीए दोनों ही करते हैं और जिनका सबसे ज्यादा जोर तीव्र आर्थिक वृद्धि से पैदा हो रही आय के न्यायपूर्ण बंटवारे के बजाय सिर्फ तीव्र आर्थिक वृद्धि पर है। लेकिन तीव्र आर्थिक वृद्धि के दावों के पीछे इस सच्चाई को लम्बे समय तक छुपाया नहीं जा सकता है कि भारत तेजी से एक असमान और विषमतापूर्ण राष्ट्र बनता जा रहा है और आम लोगों खासकर गरीबों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।