शरीर ही ब्रह्माण्ड : सत्य को ढूंढना आज की आवश्यकता

– ‘यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ कहा है। अत: विद्वानों के समक्ष चुनौती है कि मानव शरीर में दशावतारों की व्याख्या करके पश्चिम के वैज्ञानिकों के प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करें। कथात्मक व्याख्या के स्थान पर वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में शोध कार्य होना चाहिए।

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सृष्टि के सभी प्राणों का आधार ऋषि प्राण है। वस्तुत: जिन प्राणों के सम्मिश्रण से युगल सृष्टि का आरम्भ होता है उन असत् प्राणों को ही ऋषि प्राण कहते है। अपने-अपने विषयभूत पदार्थों को प्रकट करना, ग्रहण करना इनका कार्य है। अत: इन्हें देव भी कहा जाता है। प्रकाशन करने की शक्ति देव प्राणों का स्वभाव है। ऋषि हृदय किसी भी प्राणी के हृदय में प्रवेश कर सकता है। प्रत्येक प्राणी का शरीर मत्र्य प्राणों पर ही आधारित होता है। मृत्यु का आधार अमृत होता है। यत् और जू (यजु:) दोनों ही अमृत-मत्र्य रूप में बंटे रहते हैं। ऋषि प्राण सहजता से मत्र्य प्राणों में प्रवेश कर लेते हैं। इनके लिए दूरी का भी कोई अर्थ नहीं, योनि और लोक का भी अर्थ नहीं होता। सारा विश्व ऋषि प्राणों का ही विवर्त है।

सृष्टिक्रम में पंचाग्नि प्रक्रिया से आता हुआ जीवात्मा रेत के साथ पहले पुरुष शरीर में पहुंचकर सर्वत्र व्याप्त हो जाता है और प्रत्येक अंग के साथ जुड़ जाता है। वहां से सभी अंगों का अंश लेकर स्त्री शरीर में जाता है। यह स्थूल देह के स्तर पर होता है। सूक्ष्म स्तर पर प्राण के द्वारा ये विभिन्न इन्द्रियों/तन्मात्राओं से जुड़ता है। जो साधक-ऋषि होते हैं, वे इसका संचालन प्राणों के द्वारा कर लेते हैं। शरीर तो मात्र माध्यम है। प्रत्येक जीवात्मा ईश्वर से ही निकलता है। पंचाग्नि के माध्यम से स्थूल देह धारण करता है। अर्थात् वही तो सातों लोकों की यात्रा करता हुआ स्थूल रूप में यहां पहुंचता है।

एक बात महत्त्वपूर्ण यह है कि हर स्तर पर सत्ता ब्रह्म की ही है। प्रकृति के आवरण उसके लिए अर्थहीन हैं, क्योंकि प्रकृति उसी के नियंत्रण में है। अव्यय, अक्षर, क्षर, परात्पर सबकी समष्टि षोडशी पुरुष ही जगत् का आत्मा बनता है। सृष्टि की दृष्टि से इसको सर्वशक्तिमान-प्रजापति कहा जा सकता है। सभी ३३ देवता सूर्य के प्रकाश पर ही आश्रित हैं। पार्थिव अग्नि और वैश्वानर अग्नि का आधार भी सूर्य ही है।

अग्नि में सोम की आहुति यज्ञ है। यज्ञ से ही निर्माण होता है। पंचाग्नि के सिद्धान्त में सोम रूप रेत एक ही होता है। ब्रह्म का ही विवर्त बनता है। आहुति वायु के द्वारा लगाई जाती है। स्वरूप-आकृति, प्रकृति, अहंकृति का निर्माण ही सृष्टि है। इसमें वायु की अपनी भूमिका है। वही रेत को उड़ाकर स्थान से च्युत कर सकता है। सोम का द्रव-रूप वायु है, अग्नि का वायु रूप यम है।

हमारी सृष्टि भी जल से ही होती है। जल के भीतर ही ब्रह्म का पुंभ्रूण आगे बढ़ता है। इसी में आत्मारूपी सूर्य का प्रादुर्भाव होता है। महद्लोक तक की ये सारी क्रियाएं अतिसूक्ष्म हैं। वायु की भूमिका का अध्ययन अनेक रहस्यों को प्रकट कर सकता है। बादल के माध्यम से जीव बरसता है। वायु ही तय करेगा कि कौन-सा जीव किस देश-समुद्र या अन्तरिक्ष में बरसेगा। किस प्रकार के अन्न-वनस्पति में प्रवेश करेगा। अन्न/फल किस देश या मण्डी में बिकेगा, किसके पेट में जाएगा। कौन उस अन्न को खाने के लिए विदेश जाएगा अथवा विदेश से मंगाकर खाएगा।

आपने कुन्ती पुत्र कर्ण की कथा पढ़ी होगी। दशरथ ने यज्ञ की खीर खिलाकर पुत्र प्राप्त किए थे। थूक निगलने से मछली के पेट से मकरध्वज जन्मा था। द्रोपदी यज्ञ से प्रकट हुई थी और नृसिंह अवतार खंभे से। हमने मीन, कश्यप और वराह को भी अवतार तो मान लिया, किन्तु उसके गर्भ से कोई अन्य प्राणी पैदा होना स्वीकार नहीं किया। मेघनाद अदृश्य होकर युद्ध कर रहा था। द्रोपदी की सहायता के लिए क्या कृष्ण ने साड़ी के तन्तुओं में प्रवेश नहीं किया? परकाया प्रवेश के तो अनगिनत उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। जहां हमने कर्ता को भगवान माना, वहां सब कुछ स्वीकार करते गए, वरना कुछ भी संभव नहीं माना। शुक्राचार्य ने तो मृत संजीवनी देने का ही कार्य किया। सिखाने के लिए स्वयं मरकर जीवित हो गए! विज्ञान के उपकरण इन क्रियाओं का उत्तर नहीं दे सकते।

सूर्य की आराधना से प्राप्त शक्ति से सूर्य-रेत को सीधा ग्रहण किया जा सकता है। कुन्ती की तरह। मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान हर अनुष्ठान में किया जाता है। देवता स्वयं उपासना से शक्तिमान होकर इच्छित वरदान देने योग्य बन जाते हैं। तब वे अन्न के साथ दशरथ के यज्ञ की खीर में भी रहते हुए रानी के शरीर की वैश्वानर अग्नि में प्रविष्ट हो सकते हैं। संतति लाभ हो जाता है। हम जल में, वायु में, सभी तत्त्वों में विष्णु के अवतार देख सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं – जो कि शुद्ध अदृश्य प्राण क्रियाएं ही हैं – तब स्थूल जगत में उनको क्यों नहीं मान पाते। इसका परिणाम यह होता है कि हम सूक्ष्म क्रियाओं की विवेचना भी स्थूल मानकर ही करते हैं।

हमने मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे अवतारों को स्थूल रूप देकर व्याख्या करनी शुरू कर दी अवतारों की। वहां हमने स्वीकार कर लिया कि ये सभी प्राणी विष्णु के समान ही सर्वशक्तिमान थे। जितने शक्ति सम्पन्न राम और कृष्ण थे, वे प्राणी भी उतनी ही प्रभावी भूमिका में थे। किसी को यह पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि वे कौन थे। मत्स्य जल जीव, कूर्म-जल-थल का प्राणी और वराह-जल-थल-पंक पर टिका था। यही सृष्टि का विकास था। इसीलिए इनको विष्णु का अवतार मान लिया। इनके दृष्टिकोण से तो यह भी पता नहीं चलता कि विष्णु कौन थे- ये प्राणी उनके अवतार क्यों कहलाए! कृष्ण गीता में अपने अवतार लेने के कारण को बताते हुए कहते हैं-

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। गीता 4.8
अर्थात्-सज्जनों के रक्षण और दुर्जनों के संहार के लिए मैं प्रत्येक युग में अवतार लेता हूं।

प्रलयकाल का जल समुद्र विष्णु का शयनकक्ष था। सम्पूर्ण सृष्टि जलमग्न थी। विष्णु की नाभि से जो पहला अवतार हुआ, वह जलीय प्राणी था। जल ही विष्णु था। वही ब्रह्मा प्राण था, जिसने यत्-जू की सहायता से वेद-शरीर धारण किया, जो मत्स्य अवतार कहा जाता है। कूर्म अवतार में कूर्म शब्द का लौकिक अर्थ कछुआ है। कछुए का पृष्ठ भाग छाते के आकार के समान होता है। खुले मैदान में खड़े होकर आकाश तथा पृथ्वी को देखने पर यह आकाश भी हमें कछुए के समान दिखाई देता है। सूर्य हमारी त्रिलोकी का अधिष्ठाता देव है। ये ही कूर्म आकार में हमारे सर्जक बनते हैं। सूर्य ही विश्व के दृष्टा है अत: इनको पश्यक कहा जाता है। पश्यक का विपरीत भाव कश्यप सूर्य का ही नाम है। सूर्य ही विष्णु-अवतार है, सत्यनारायण विष्णु हैं। ये ही कूर्म प्रजापति है।

अन्तरिक्ष के जलसमुद्र में जितने पिण्ड हैं-सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, ग्रहादि वे जिस वायु के आधार पर टिके हैं, उस वायु का नाम ‘वराह’ है, जो इन पिण्डों को समुद्र से बाहर कार्यरत दिखाता है। हम कहते हैं-वराह अवतार ने पृथ्वी को जल से बाहर निकाला। सृष्टि का प्रत्येक पिण्ड सत्य है। वह चारों ओर से ऋत् से घिरा रहता है। ऋत् (सोम) के कारण ही पिण्ड अपने स्वरूप में स्थित रह पाता है। यह आवरक तत्त्व ही वेद विज्ञान में वराह कहलाता है। अधिदैव संस्था में यही मातरिश्वा वायु है। अध्यात्म संस्था में यह एवयामरुत् कहा जाता है।

पंचपर्वा विश्व में (स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी) मातरिश्वा वायु ही समुद्र में फैले हुए पार्थिव परमाणुओं को संकलित कर उन्हें पिण्ड रूप में परिणत करता है। स्वयं भी उसी पिण्ड के चारों ओर स्थिर रूप से व्याप्त हो जाता है, अत: वराह कहा जाता है। पांचों पिण्डों के वराह क्रमश: आदिवराह, यज्ञ वराह, श्वेत वराह, ब्रह्म वराह तथा एमूष वराह कहलाते हैं। दशावतारों के पीछे क्या वैज्ञानिक अवधारणा रही, इस बात की चर्चा होना आवश्यक है।

जिस प्रकार सूक्ष्म सृष्टि में प्रक्रियाएं नित्य चलती हैं, वैसे ही हमारे शरीर में भी चलती हैं। ‘यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ कहा है। अत: विद्वानों के समक्ष यह चुनौती है कि मानव शरीर में इन दशावतारों की व्याख्या करके पश्चिम के वैज्ञानिकों के प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करें। कथात्मक व्याख्या के स्थान पर वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में शोध कार्य होना चाहिए।

सूर्य की आराधना से प्राप्त शक्ति से सूर्य-रेत को सीधा ग्रहण किया जा सकता है। कुन्ती की तरह। मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान हर अनुष्ठान में किया जाता है। देवता स्वयं उपासना से शक्तिमान होकर इच्छित वरदान देने योग्य बन जाते हैं।
खुले मैदान में खड़े होकर आकाश तथा पृथ्वी को देखने पर यह आकाश भी हमें कछुए के समान दिखाई देता है। सूर्य हमारी त्रिलोकी का अधिष्ठाता देव है। ये ही कूर्म आकार में हमारे सर्जक बनते हैं।

क्रमश:

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