हालांकि सुदूर दक्षिणी राज्य से उपजा यह राजनीतिक घटनाक्रम ज्यादा बड़ी सुर्खियां बटोर नहीं पाया। लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि लोकसभा चुनाव की बिसात पर मोहरे हरकत में आ गए हैं। कौन ढाई घर चलेगा और कौन तिरछी चाल, ऐसे अप्रत्याशित कुछ और कदम भी सामने आ सकते हैं। यों तो केसीआर सियासत के कम जादूगर नहीं हैं। उन्होंने अलग तेलंगाना राज्य की मांग के वक्त कांग्रेस से वादा किया था, कि वे टीआरएस का कांग्रेस में विलय कर देंगे। लेकिन बाद में कांग्रेस को अंगूठा दिखाया और चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज हो गए। चार साल, तीन माह चार दिन पहले 119 में से 63 सीट जीतने वाली टीआरएस के अब पाला बदलकर आने वाले विधायकों को मिलाकर कुल 90 विधायक हैं।
तय अवधि से करीब नौ माह पहले विधानसभा भंग कर केसीआर ने कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा से भी अपनी दूरी दर्शाई है। भले ही उनकी पार्टी मोदी सरकार के अविश्वास प्रस्ताव पर भाजपा के साथ थी। केसीआर की रणनीति साफ है, लोकसभा व विधानसभा चुनाव साथ होने पर वे भाजपा से अपनी नजदीकी की वजह से निशाने पर आ सकते हैं। केंद्रीय राजनीति के मुद्दों के शोर में उनके स्थानीय मुद्दे और उपलब्धियां गुम होने से उनको नुकसान हो सकता है। यदि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के साथ तेलंगाना में चुनाव हुए तो दोनों दलों से समान दूरी दिखाकर वे अल्पसंख्यक वोट अपनी ओर मोड़ सकते हैं। आज तेलंगाना में बिखरी हुई कांग्रेस के पास तैयारी का मौका नहीं है। भाजपा ने भी यदि अलग प्रत्याशी उतारे तो कांग्रेस को नुकसान ज्यादा होगा।
स्थानीय मुद्दों के चुनाव का स्वाभाविक लाभ फिलहाल टीआरएस को मिलने की उम्मीद ज्यादा है। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में टीआरएस ज्यादा ताकत से चुनाव में उतर पाएगी। दूसरी ओर, भाजपा का यह आकलन भी हो सकता है कि हिंदी भाषी राज्यों में नुकसान की किसी स्थिति में भरपाई के लिए राजग के पास तब टीआरएस एक मजबूत सहयोगी हो सकता है। अत: नपे-तुले नुकसान वाली ऐसी कुछ और पटकथाएं भी अन्य राज्यों से सामने आ सकती हैं। आरक्षण और दलित मसले पर हिंदी भाषी क्षेत्रों में अप्रत्याशित तौर पर डोलते सियासी संतुलन में इसे राजग की रणनीति कहना भी शायद गलत नहीं होगा। राजनीति में रणनीति और उसका समय अहम होता है। अगली चाल किसकी होगी, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा।