पराधीन सपनेहुं सुख नाहिं। इसीलिए इस देश ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया था। सचाई तो यह है कि आज भी हम पराधीन हैं। नेताओं ने गरिमा खो दी। अधिकारी पराए हो गए। जनता प्रतिनिधि चुनकर गूंगी होने को मजबूर हो गई। योजनाएं जमीन से जुड़े मुद्दों की नहीं बनती। कमीशन को ध्यान में रखकर निरर्थक मुद्दों की बनती हैं। सारे निर्माण इसी तर्ज पर होते हैं। यही कारण है कि सत्तर सालों में विकास केवल गरीबी रेखा के नीचे हुआ है। कृषि प्रधान देश की अधिकांश जमीनें सड़कें और पुल खा गए। पशुपालन को विदा करने पर तुले हुए हैं। चारागाह सिमट गए। कारखानें, वे भी विदेशी निवेश के साथ, हमारे विकास के सपनों को घेर चुके हैं। किसान प्रत्येक योजना और भाषण का केन्द्र आज भी है, किन्तु उसके जीवन को किसने देखा है! किसानों की तो नई पीढिय़ां भी खेती करने को तैयार नहीं हैं। इसमें सरकारी नीतियों और क्रियान्वयन का उत्तर समाहित है।
कभी कृषि भारत का गौरव थी। आज विषैली-देश नाशक-हो गई। यह कृषि विभाग की ‘भूमिका’ का सर्वोच्च प्रमाण है। यहां पर सारी योजनाएं विदेशी अन्दाज में, फसलों की स्थानीय योजनाएं फाइलों में तथा खाद-बीज के सारे लक्ष्य व्यापारिक तर्ज पर तय होते हैं। कृषि और कृषक से इनका कोई लेना-देना नहीं है। यहां तक कि गिरदावरी रिपोर्ट कई बार फसल आने से पहले ही बन्द हो जाती है। अधिकारियों को स्थानीय भूगोल से कोई वास्ता नहीं होता। उनके लिए तो सम्पूर्ण देश की जलवायु समान है। कहां क्या पैदा होना चाहिए, इसकी चिन्ता अब नहीं है। आज तो नई चीज क्या पैदा की जा सकती हैं, वही विकास है। तब मेरे देश का किसान कैसे कभी समृद्ध होगा!
इसका ही परिणाम है कि वर्तमान में बहुलता से पैदा होने वाली फसलों को ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ मानकर असहाय छोड़ रखा है। सारा ध्यान ग्रीन हाऊस और फसल बीमा पर केन्द्रित हो गया है। अकेले राजस्थान में ही जोधपुर, जालौर, सिरोही जैसे जिलों में सौंफ, जीरा, इसबगोल बहुलता से पैदा होते हैं। पश्चिमी राजस्थान में केर, सांगरी, कुंमट, बबूल बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। कोटा संभाग में धनिए, लहसुन की बम्पर पैदावार है। इसी तरह मध्यप्रदेश में कपास खूब है पर सूत बनाने की फैक्ट्रियां नहीं हैं। सोयाबीन, मक्का, सरसों ज्यादातर प्रोसेसिंग के लिए राज्य से बाहर जाते हैं। पड़ोसी छत्तीसगढ़ की स्थिति तो और भी खराब है। काजू, चिरौंजी, इमली, महुआ, तेंदुपत्ता, कोदो-कुटकी, साल-बीज, सफेद मूसली, हर्रा-बहेड़ा, टोरा, काफी और आम-पपीता जैसी दर्जनों उपज हैं जिन्हें पैदा छत्तीसगढ़ का किसान करता है पर उनसे अन्तिम उत्पाद बनाने के कारखाने अन्य राज्यों में हैं। इन सभी क्षेत्रों में केन्द्र से लेकर राज्यों तक के कृषि विभाग को विचार शून्य देखा जा सकता है। कहीं किसी तकनीक का विकास नहीं। कहीं कोई प्रोसेसिंग की व्यवस्था नहीं। तब क्या कृषि विभाग केवल रासायनिक खाद बेचने वाला एजेण्ट मात्र है? कीटनाशकों की सलाह देकर जनता को जहर परोसने वाला कारखाना है?
क्या इनके बिना खेती नहीं हो सकती? हां, उन्नत बीजों की नहीं हो सकती। नए बीज, खाद, दवाएं इनको समान रूप से देशभर में लागू किया जा सकता है। तब स्थानीय भिन्न-भिन्न प्रकार की उपजों के लिए माथा कौन लगाए? इनका नुकसान बरसों से हमारा किसान भोग रहा है। अफसर का कौन-सा वेतन कट रहा है?
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गुजरात के मेहसाणा जिले की ऊंझा मण्डी तो केवल राजस्थान के सौंफ-जीरा-इसबगोल के सहारे ही पूरे देश में जानी जाती है। क्यों? क्योंकि हमारा विभाग मस्त है। सारा परिश्रम हमारे किसानों का और मलाई गुजरात सरकार की।
राजस्थान से प्रतिवर्ष यहां 25 लाख बोरी जीरा आता है। तीन लाख बोरी सौंफ आती है। इसबगोल भी लगभग 50 प्रतिशत वहां पहुंचता है। इसका एक ही कारण है कि हमारे प्रदेश में सरकार की ओर से वे सुविधाएं नहीं हैं, जो गुजरात सरकार ने वहां उपलब्ध करा रखी हैं। यहां तो किसानों की दुर्दशा के समाचार पढ़ सकते हैं। बारां में लहसुन भरे ट्रेक्टरों की कतार आज भी आंखों के आगे ताजा है। बारां में ही लहसुन की खरीद की मात्रा बढ़ा देने से क्या नुकसान पहुंचाया गया था किसानों को-सबको याद है। पश्चिमी राजस्थान में भी केर-सांगरी जैसी उपज आज भी परम्परा के सहारे खड़ी है। कहीं कोई हार्वेस्टिंग-प्रोसेसिंग की तकनीक उपलब्ध नहीं है। विभाग की शायद भागीदारी ही नहीं है। आवश्यकता तो इस बात की है कि जिन क्षेत्रों में अपनी विशेष उपज है वहां ‘सेंटर ऑफ एक्सीलेंस’ विकसित किए जाएं। सरकार की ओर से कृषि आधारित उद्योगों और प्रोसेसिंग के लिए इकाईयां लगें, जिनका उपयोग स्थानीय कृषक कम खर्चे पर कर पाएं।
सुविधा देना तो रहा दूर, आज तो कृषि बीमा योजना ही किसान के लिए कैंसर बन गई। आप देख लें-हर वर्ष कितने किसानों को मुआवजा नहीं मिलता और क्यों? मध्यप्रदेश में तो बीमा की अनिवार्यता का हाल यह था कि बैंक अधिकारी किसान के ऋण की किस्तों में पहले बीमा की किस्त बाहर निकाल देता था। उसके खाते में यह रकम कम हो जाती, तो उस पर ब्याज भी लगाने लग जाते। बीमा फार्म के पीछे शर्तें अंग्रेजी में होतीं, जिनको दिखाकर मुआवजा रोक दिया जाता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक कार्यक्रम में इसे स्वीकार भी किया। तब किसान समृद्ध होगा अथवा आत्महत्या करने को मजबूर होगा, सोचा जा सकता है! वह लोकतंत्र में निर्णय लेने को स्वतंत्र है।