पुलिस के लिए शाप जैसा है अभिरक्षा ने मौत

पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु का एक भी प्रकरण सामने आना अत्यंत दुखदायी है। अभिरक्षा में प्रताड़ना के प्रकरण मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।

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आर.के. विज, छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी
विगत तीन माह से कोविड-19 का मुकाबला करते हुए पुलिस ने कई प्रशंसनीय कार्य किये हैं। जोखिम उठाते हुए अप्रवासी मजदूरों को खाना खिलाया, पहनने के लिये जूते-चप्पल बांटे और परिवहन के साधन उपलब्ध कराये। जो भी पुलिस की हद में था वह सब करने का प्रयास किया। कुछ डंडा चलाने वाले प्रकरणों को यदि अपवाद मान लिया जाए तो कुल मिलाकर पुलिस एक अच्छी छवि स्थापित करने में सफल रही है। सोशल मीडिया में भी पुलिस की गूंज थी। परंतु, थुथूकुड़ी (टूटीकोरीन) जिला की दर्दनाक घटना ने पुलिस को एक बार फिर कटघरे में खड़ा कर दिया है।

हाल ही में 22 व 23 जून को जेल अभिरक्षा में बाप-बेटे की अस्पताल में इलाज के दौरान मृत्यु ने देश की समूची पुलिस को पुनः सिरे से सोचने के लिये मजबूर कर दिया है। दोनों को 19 जून कोे कोविड-19 महामारी के दौरान लागू कियेे गये लाॅकडाउन की शर्ताें का उल्लंघन करते हुए मोबाईल फोन की दुकान खोलने के आरोप में थुथूकुड़ी (टूटीकोरीन) जिला के शथनकुलम पुलिस स्टेशन द्वारा गिरफ्तार किया गया था। आरोप है कि पुलिस द्वारा अभिरक्षा में उनके साथ इतनी क्रूरता की गई कि दोनों प्रताड़ना को सहन नहीं कर पाये। मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई बेंच द्वारा घटना का स्वयं संज्ञान लेते हुए न्यायिक जांच के आदेश दे दिये गये हैं।

अभिरक्षा में मृत्यु पुलिस के लिये एक श्राप जैसे है। अचानक समाज का हर वर्ग पुलिस को कोसने लगता है। एक ओर जहां दोषी पुलिस अधिकारियों को विभागीय एवं कानूनी कार्यवाही के तहत कड़ी सजा मिलती है, वहीं समूचे विभाग की छवि पर द़ाग लग जाता है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व जस्टिस मार्कण्डे काटजू द्वारा ‘प्रकाश कदम विरूद्ध राम प्रसाद विश्वनाथ गुप्ता’ प्रकरण का हवाला देते हुए ट्वीट किया कि दोषी पुलिस कर्मियों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिये। दरअसल् ‘प्रकाश कदम’ प्रकरण मुंबई पुलिस का वर्ष 2006 का वो प्रकरण है, जिसमें पुलिस पर यह आरोप था कि कांट्रेट कीलिंग के प्रकरण को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ का अमलीजामा पहना दिया। बाॅम्बे उच्च न्यायालय के दोषी पुलिस कर्मियों की जमानत निरस्त करने का निर्णय बरकरार रखते हुए जस्टिस मार्कण्डे काटजू एवं जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने अपने निर्णय में कहा कि यदि पुलिस फर्जी मुठभेड़ करती है, तो ऐसे प्रकरणों को दुर्लभ मामले मानते हुए दोषी पुलिस कर्मियों को फांसी की सजा दी जानी चाहिये क्योंकि ऐसे कृत्य उनके कर्तव्यों के बिल्कुल विपरीत है।

अभिरक्षा में पुलिस प्रताड़ना से निपटने के लिये कानून में पर्याप्त प्रावधान है। उच्चतम न्यायालय द्वारा भी समय-समय पर कई कड़े निर्णय दिये हैं। डी.के. बसु (1997) प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा गिरफ्तारी के दौरान पारदर्शिता एवं जवाबदेही तय करने के लिये 11 निर्देश जारी किये गये। इनमें से कई निर्देशों ने कानूनी रूप ले लिया है। फर्जी मुठभेडों पर रोक लगाने के लिये भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्देश दिये हैं। अभिरक्षा में मृत्यु एवं बलात्कार के प्रकरणों की प्राथमिक जांच न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाना भी अनिवार्य है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी अभिरक्षा में अप्राकृतिक मृत्यु के प्रकरणों पर कड़ी नजर रखता है। बावजूद इतनी निगरानी के, कदाचित अभिरक्षा में मृत्यु के प्रकरण सामने आना अत्यंत दुखदायी है क्योंकि अभिरक्षा में प्रताड़ना के प्रकरण मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।

नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 से वर्ष 2016 तक देश में प्रतिवर्ष औसतन 95 मौत पुलिस अभिरक्षा में हुई है। इनमें से औसतन 24 मौतें अस्पताल में ईलाज के दौरान, 22 बीमारी के कारण एवं 23 आरोपियों के द्वारा आत्महत्या के फलस्वरूप हुई है। पुलिस प्रताड़ना के फलस्वरूप विगत पांच वर्षों (2014 से 2018 तक) में होने वाली कुल मृत्यु 31 हैं, अर्थात् प्रतिवर्ष औसतन करीब छः (6)। पुलिस प्रताड़ना से होने वाली मृत्यु का एक प्रकरण भी पुलिस छवि के लिये अपमान जनक है। अभिरक्षा में मृत्यु पर कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता। अभिरक्षा में अभियुक्त द्वारा आत्महत्या कर लेना भी आपत्तिजनक है, क्योंकि इसमें कहीं न कहीं थाने की त्रुटिपूर्ण अधोसंरचना या पुलिस कर्मियों की लापरवाही प्रदर्शित होती है। परंतु, पुलिस प्रताड़ना से किसी एक की भी मृत्यु हो जाना ऐसा आपराधिक कृत्य है जिस पर पूर्णतया रोक लगाना बहुत जरूरी है।

जिस प्रकरण में बाप-बेटे को गिरफ्तार किया गया था वह बड़ा मामूली प्रकरण था, उसमें कोई षड़यंत्र का पर्दाफाश करने जैसा कोई मुद्दा नहीं था। अन्यथा भी, गंभीर प्रकरणों में पुलिस को अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है। पूछताछ के कई नवीनतम वैज्ञानिक तरीके ईज़ात हो चुके हैं। जैसे, ब्रेन फिंगर-प्रिटिंग यह एक ऐसी तकनीक है जिसके माध्यम से कई छिपी हुई जानकारियां प्राप्त की जा सकती है और अनुसंधानकर्ता अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त जानकारियों को एक-साथ पिरोकर संदेही को अपराध की श्रृंखला में जकड़ सकता है। यह हो सकता है कि कुल गंभीर प्रकरणों में पुलिस पर परिणाम दिखाने के लिये जनता का दबाव हो, परंतु पुलिस को अपनी हदे पहचाननी होंगी। उन्हें न तो किसी को सजा देने का अधिकार है और न ही कानून के विपरीत काम करने का। ऐसे में हो सकता है कि कुछ प्रकरण अनसुलझे रह जाए। पुलिस की बाधायें आम जनता को भी समझनी होंगी। पुलिस सुधारों के लिये कई आयोगों द्वारा अपनी अनुसंशायें दी गई हैं एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्णय। इनमें से अनुसंधान को कानून-व्यवस्था से पृथक करना एक अहम् मुद्दा है। पुलिस के संसाधनों में बेहतरी और अनुसंधानकताओं की संख्या में वृद्धि करनी होगी। संसाधनों की कमी होने के बावजूद भी मेरा मानना है कि पुलिस को पूछताछ के तरीकों और अपने व्यवहार को सुधारना होगा।

shailendra tiwari

राजनीति, देश-दुनिया, पॉलिसी प्लानिंग, ढांचागत विकास, साहित्य और लेखन में गहरी रुचि। पत्रकारिता में 20 साल से सक्रिय। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली राज्य में काम किया। वर्तमान में भोपाल में पदस्थापित और स्पॉटलाइट एडिटर एवं डिजिटल हेड मध्यप्रदेश की जिम्मेदारी।

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