आर्ट एंड कल्चर: विवादों की आड़ में गुम होते मुद्दे

ओटीटी से जुड़ी नीतियों को सरकार अब फाइलों से धरातल पर उतारे

विनोद अनुपम
‘तांडव’ की नौ सीरीज में वह दृश्य नौ मिनट का भी नहीं होगा, जिसे लेकर विवाद चरम पर रहा। देश भर के कई शहरों में निर्माता से लेकर अभिनेताओं तक पर एफआइआर दर्ज होने के बाद निर्माताओं की तरफ से एक ट्वीट कर माफी भी मांग ली गई और विवादित दृश्य को हटाने की बात भी कही गई। वास्तव में वह दृश्य कथ्य का हिस्सा था भी नहीं, इसीलिए उसे निकालने की घोषणा में निर्माताओं ने देर भी नहीं लगायी। दूसरी बात उस दृश्य का जो उद्देश्य था, वह पूरा भी हो गया था। उस दृश्य के कारण ‘तांडव’ को मीडिया में जितना स्पेस मिलना था मिल चुका था, जितने दर्शक जुटाने थे, जुटा दिए थे। माफीनामे से संतुष्ट विरोध करने वालों को शायद अहसास न हो, निर्माताओं को बखूबी अहसास था कि ऐसे विवादों से लाभ हमें ही मिलना है।
ऐसे विरोध का नुकसान यह होता है कि सीरीज या फिल्मों के जिन मद्दों पर बात होनी चाहिए, वे कहीं पीछे छूट जाते हैं। वास्तव में ‘तांडव’ जैसी वेब सीरीज का विरोध इसलिए होना चाहिए कि वह पूरी तरह प्रजातंत्र के प्रति हतोत्साहित करती है। राजनीतिक कशमकश दिखाना एक अलग बात है, लेकिन कशमकश के नाम पर पूरी संसदीय व्यवस्था को षड्यंत्र, सेक्स और अपराध पर टिका दिखाना निर्माताओं के कुछ और ही मंसूबे जाहिर करता है। विरोध पुलिस की ओर से होना चाहिए, जिसे एक आपराधिक गिरोह की तरह चित्रित किया गया है। विरोध महिलाओं की ओर से होना चाहिए, जिसकी सबसे बड़ी ताकत के रूप में उसकी सेक्सुअलिटी को दिखाया जाता है। तांडव में जितने भी महिला पात्र हैं, सभी ओहदे के लिए समझौते करते दिखाई देती हैं। विरोध इसलिए भी होना चाहिए कि यह महिलाओं को बदला लेने के लिए एक वस्तु के रूप में चित्रित करती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण बात है और किसी भी प्रजातंत्र की बुनियादी शर्त भी, लेकिन रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर सामाजिक-राजनीतिक तानेबाने को उलझाने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता। जरूरत है ओटीटी से जुड़ी नीतियों को सरकार फाइलों से धरातल पर उतारे, ताकि किसी भी कला-कर्म के प्रति एफआइआर जैसी चरम स्थिति नहीं आ सके।
(राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक)
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