ओपिनियन

कहीं पिछड़ न जाए एक बड़ा समूह

बात सिर्फ इंटरनेट और लर्निंग की नहीं है, बात उस विकराल डिजिटल विभाजन की है जो साफ तौर पर इस देश में अमीरों और गरीबों के एक बड़ी लकीर खीचता हुआ दिख रहा है।

नई दिल्लीJun 28, 2020 / 04:27 pm

shailendra tiwari

Digital Learning

रिज़वान अंसारी, टिप्पणीकार

हाल ही में पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिला में एक दसवीं की छात्रा ने ऑनलाइन क्लास में भाग न ले पाने की वजह से आत्महत्या कर ली। उधर, केरल के मलप्पुरम में इसी वजह से दसवीं की दो छात्राओं ने आत्महत्या कर ली। आंध्र प्रदेश से भी एक छात्रा के आत्महत्या करने की खबर आई है। ये खुदकुशी भले ही दो अलग-अलग जगहों पर हुईं हों, लेकिन इन सब घटनाओं की वजह एक ही है। इनके परिवारजनों की मानें तो, इनके घरों में स्मार्टफोन और इंटरनेट की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है जिसके कारण इन छात्राओं का ऑनलाइ क्लास में भाग लेना मुमकिन नहीं हो सका। कोरोना संकट के दौर में शिक्षा के क्षेत्र में जो चुनौती है उसमें ऑनलाइन क्लास एक स्वाभाविक विकल्प है। लेकिन, सवाल हमारी तैयारियों की है। हम हमेशा से जिस सामाजिक-आर्थिक असमानता की बात करते आ रहे हैं, वही असमानता इस ऑनलाइन व्यवस्था में डिजिटल विभाजन के रूप में दिख रही है। पीड़ित परिवार के पास स्मार्टफोन और इंटरनेट की सुविधा न होना विकराल डिजिटल विभाजन की ओर ईशारा कर रहा है।

‘इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ के मुताबिक मार्च, 2019 तक भारत की 45 करोड़ आबादी तक ही इंटरनेट की पहुँच थी। यानी लगभग 35 फीसदी लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक विश्वविद्यालय में पढ़ रहे महज 12 फीसदी छात्रों के घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन के आँकड़ों के मुताबिक विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 85 फीसदी शहरी छात्रों के पास इंटरनेट है, लेकिन इनमें से 41 फीसदी ही ऐसे हैं जिनके पास घर पर भी इंटरनेट है जबकि उच्च शिक्षा हासिल कर रहे ग्रामीण छात्रों में से सिर्फ 28 फीसदी के घरों तक ही इंटरनेट की पहुँच है। राज्यवार देखें तो, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में 7 से 8 फीसद ग्रामीण परिवारों में ही इंटरनेट उपलब्ध है।

बात सिर्फ इंटरनेट और लर्निंग की नहीं है, बात उस विकराल डिजिटल विभाजन की है जो साफ तौर पर इस देश में अमीरों और गरीबों के एक बड़ी लकीर खीचता हुआ दिख रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक शहरी क्षेत्र में महज 61 फीसदी दलित परिवार के पास स्मार्टफोन है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह केवल 42.8 फीसदी है। सवाल है कि जब एक बड़ी आबादी के पास स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, डेटा, आदि सुविधाएँ नहीं है, तो वे ऑनलाइन शिक्षा का समुचित लाभ कैसे उठा पाएंगे? जाहिर है, यह व्यवस्था समाज में पहले से ही व्याप्त भेदभाव को और प्रोत्साहित करेगा। स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, डेटा आदि की लागत और क्लासरूम शिक्षा की लागत का अंतर अगर देखें तो, पता चलता है कि कैसे दलित-पिछड़े तबके गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से बाहर हो सकते हैं।
ई-शिक्षा को आसान बताने से पहले हमें यह सोचना होगा कि क्या हमने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समानता को हासिल कर लिया है? इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा सामाजीकरण की एक प्रक्रिया है। ऐसे में यह देखना होगा कि क्या ई-शिक्षा वाकई सामाजीकरण को अमलीजामा पहनाने में कामयाब है? मौजूदा वक्त में शिक्षा मुनाफा कमाने का धंधा बन चुका है। ऐसे में डर है कि ऑनलाइन शिक्षा मॉडल भी कहीं कॉरपोरेटों के चंगुल में न फंस जाए। अगर ऐसा होता है तो, इस सुविधा को कौन लोग हासिल कर पाएंगे? समझना होगा कि उपभोक्ता वही होता है जिसके पास खरीदने की क्षमता हो या कर्ज पाने की योग्यता हो। यानी जो दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग पहले से ही इस होड़ से बाहर थे, इस नई व्यवस्था से उनकी राहें और मुश्किल कर हो जाएंगी।
लोगों तक इंटरनेट की पहुँच को एक समस्या है ही, लेकिन उससे भी बड़ी समस्या है परिवारों का इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस से लैस न होना। जाहिर है, इस आपदा के समय में उन परिवारों के बच्चे ही ई-शिक्षा के जरिये कक्षा में शामिल हो पाएंगे जिनके पास स्मार्टफोन या दूसरे उपकरण हैं। एक यह भी समस्या है कि एक परिवार में स्मार्टफोन एक है और पढ़ने वाले बच्चे चार हैं।
ऐसे में अगर एक ही समय पर दो बच्चों की भी ऑनलाइन क्लास हो तो, परिवार के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो जाती है। एक गरीब और वंचित वर्ग के परिवार के लिए यह चुनौती किसी परीक्षा की घड़ी से कम नहीं है। लिहाजा, हो रही आत्महत्या के आंकड़ों में इजाफा हो जाए, तो हैरानी नहीं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि तत्काल इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले डिवाइस को ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में घर-घर पहुँचाए। इसके लिए सरकार सब्सिडी वाले फोन को लोगों तक पहुंचाने के लिए कोई योजना प्रारंभ कर सकती है।
सामान्यत: भी देखें तो मौजूदा समय में देश में 29 करोड़ स्मार्टफोन यूजर हैं और 2021 तक 18 करोड़ नए यूजर के जुड़ने की संभावना है। यानी ऑनलाइन शिक्षा को सफल बनाने के लिए सरकार को व्यापक स्तर पर लोगों तक स्मार्टफोन पहुंचाने होंगे। इसके बाद सरकार इंटरनेट कनेक्टिविटी पर भी जोर दे। कश्मीर या दूसरे उन दुर्गम क्षेत्रों के बारे में सोचना होगा जहाँ के लिए 4जी नेटवर्क अभी भी नई बात है। बहरहाल, सामाजिक न्याय का तकाजा है कि सरकार समाज में पहले ही व्याप्त असमानता की खाई को और ज्यादा बढ़ने न दे।

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