Video: देश रक्षा करते हुए शहीद हो गया बेटा, अब विधवा मां पर आया गुजारे का संकट

– ये कैसे नियम : शहीद की पेंशन व अन्य लाभ उठाने वाली विरांगना पीहर जाकर रहने लगी- शहीद की विधवा मां चार साल से काट रही है सरकारी कार्यालयों के चक्कर

<p>The son was martyred, now the widow mother faced crisis of survival</p>
नागौर. ‘मैं शहीद महेन्द्रपाल फौजी की मां बाउड़ी हूं। महेन्द्रपाल जब एक महीने का था, जब उसके पिता की मृत्यु हो गई। बच्चा छोटा था, मेरे ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा। जैसे-तैसे कर महेन्द्रपाल को पढ़ाया-लिखाया तो उसकी फौज में नौकरी लग गई। तब लगा कि बुढ़ापा आराम से कट जाएगा, लेकिन नवम्बर 2012 में महेन्द्र पाल देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। शहीद की पेंशन उसकी पत्नी निर्मला उठा रही है, उसकी नौकरी भी लग गई, लेकिन मुझे एक रुपया नहीं देती। मैं बूढ़ी हो गई हूं, मजदूरी करने नहीं जा सकती। आर्थिक संकट के चलते मेरा बुढ़ावा कटना मुश्किल हो गया है।’ यह कहते-कहते नराधना निवासी शहीद की मां का गला भर आया, आंखें भीग गई।
रुंधे गले से बाउड़ी फिर बोली – ‘पेंशन के लिए पिछले चार साल से सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रही हैं। गांव से नागौर आने के लिए पहले दो कोस पैदल चलना पड़ता है, फिर बस में बैठकर आती हूं, यहां आश्वासन देकर वापस भेज देते हैं। किसी ने कहा – कलक्टर अच्छे अधिकारी हैं, कई शहीदों के परिवारों को न्याय दिलाया है, उनसे मिलो। इसलिए आज उनसे मिलने यहां आई हूं।’
सैनिक कल्याण अधिकारी ने निदेशक को लिखा पत्र
शहीद की मां बाउड़ी को पेंशन स्वीकृति के लिए जिला सैनिक कल्याण अधिकारी कर्नल एमके शर्मा ने सैनिक कल्याण विभाग राजस्थान के निदेशक को गत 27 अगस्त को पत्र लिखा। कर्नल शर्मा ने पत्र में बताया कि शहीद महेन्द्रपाल की की माता की आर्थिक स्थिति खराब है और अकेली वृद्ध औरत है, जो अक्सर बीमार रहती है। शहीद की सम्पूर्ण पेंशन शहीद की पत्नी निर्मला कंवर को मिलती है और वह सरकारी सेवा में है, जबकि शहीद की मां को किसी प्रकार की पेंशन नहीं मिलती। इसलिए शहीद की मां को पेंशन स्वीकृति के लिए अग्रिम कार्रवाई करें।
बड़ा सवाल, क्या जिनके बेटे शहीद होते हैं, उन्हें यह ईनाम मिलता है
मंगलवार को कलक्ट्रेट में आई शहीद की मां बाउड़ी ने सरकारी व्यवस्था के साथ समाज की व्यवस्था पर भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं। नवम्बर 2012 में जब महेन्द्रपाल शहीद हुए, तब जिस प्रकार हमारे जनप्रतिनिधियों ने उनके बलिदान पर बड़े-बड़े भाषण दिए। हजारों लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए, तब शहीद की मां को भी गर्व हुआ कि उनके बेटे ने देश की खातिर अपने प्राणों की आहुति दी है। लेकिन मात्र 9 साल में बाउड़ी को गुजारे के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। ऐसे में अब एक ही सवाल उठता है कि क्या, जिनके बेटे शहीद होते हैं, उन्हें यही ईनाम मिलता है।
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