उलजुलूल घटनाओं की भरमार
भारत की खुफिया एजेंसी रॉ की शान में इस फिल्म ने काफी गुस्ताखियां की हैं। पाकिस्तान के भारतीय दूतावास में ऐसे अजीबो-गरीब अफसर-कर्मचारी शायद ही कभी रहे हों, जैसे ‘लाहौर कॉन्फीडेंशियल’ में दिखाए गए। इनमें आजाद ख्यालात वाली रॉ की एक महिला एजेंट (करिश्मा तन्ना) शामिल है, जो नैतिकता को ताक में रखकर किसी भी हद तक जा सकती है। कुछ और हदें लांघने के लिए दूसरी एजेंट (रिचा चड्ढा) को रॉ वाले दिल्ली से पाकिस्तान भेजते हैं। यह एजेंट शायरी की शौकीन है। कोई भी पाकिस्तानी दो-चार शेर सुनाकर उसके जज्बात से खेल सकता है। वहां के शादीशुदा पठान (अरुणोदय सिंह) को वह दिल दे बैठती है (उसने भी कुछ शेर सुना दिए थे)। कई उलजुलूल घटनाओं के बाद जब खुलासा होता है कि पठान भारत के खिलाफ साजिशों में लिप्त है, तो अचानक रिचा चड्ढा की देशभक्ति जाग उठती है।
हद से ज्यादा शेरो-शायरी
फिल्म की घटनाएं घोर काल्पनिक हैं। तर्क की तो खैर गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई है, घटनाओं का तालमेल भी गड़बड़ाया हुआ है। शेरो-शायरी का हद से ज्यादा इस्तेमाल फिल्म की रफ्तार में कभी ब्रेक लगाता है, तो कभी झटके देने लगता है। एक सीन में मोहब्बत चल रही है, अगले सीन में गोलियां चलने लगती हैं। जब कुछ नहीं चलता, तो फोन पर रिचा चड्ढा की मां शुरू हो जाती हैं- ‘उम्र होती जा रही है तेरी, शादी कब करेगी।’ जिन कलाकारों ने भारतीय दूतावास के अफसर-कर्मचारियों के किरदार अदा किए हैं, सभी थके-थके-से नजर आते हैं। शायद उन्हें भी बेदम कहानी का इल्म हो गया था। लिहाजा चुस्ती-फुर्ती दिखाने के बजाय ज्यादातर समय वे हैरान-परेशान इधर-उधर होते रहे।
रिचा चड्ढा एक्टिंग में फिसड्डी
पहले ‘शकीला’ और उसके बाद ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ देखकर हमारा ख्याल था कि कमजोर फिल्मों की वजह से रिचा चड्ढा एक्टिंग के जौहर नहीं दिखा पा रही हैं। ‘लाहौर कॉन्फीडेंशियल’ ने साफ कर दिया कि यह ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ वाला मामला है। यानी रिचा चड्ढा खुद एक्टिंग में फिसड्डी हैं। इस फिल्म में उनका चेहरा भावशून्य बना रहता है। शेर सुनकर तालियां ऐसे बजाती हैं, जैसे मक्खियां उड़ा रही हों।
रॉ वालों को भी हैरान करेगी फिल्म
बहरहाल, एक्टिंग ही नहीं, निर्देशन, पटकथा, संगीत, फोटोग्राफी और संपादन के मोर्चे पर भी यह निहायत लचर फिल्म है। रॉ वालों को भी यह अच्छा-खासा सिरदर्द देगी, जिनके कारनामों पर इसे बनाया गया है। ‘लाहौर कॉन्फीडेंशियल’ बनाने वालों ने पिछले साल ‘लंदन कॉन्फीडेंशियल’ पेश की थी। वह भी बेसिरपैर की फिल्म थी। बेहतर होगा कि अब कुछ और ‘कॉन्फीडेंशियल’ बनाने के बजाय वे अच्छी कहानियों की खोज करें। दर्शकों पर बड़ी मेहरबानी होगी।
-दिनेश ठाकुर