ये रोग्यापास शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है और फिर एक दूसरा कर्मचारी उस शव के टुकड़े को जौ के घोल में डुबोकर उसे गिद्धों के खाने के लिए डाल देता है। गिद्ध जब मांस खाकर चले जाते है तो हड्डियों को एकत्रित कर उसका चूरा बनाया जाता है और उसको भी जौ के आटे या याक के मक्खन के घोल में डुबोकर कौओ और बाजों को खिला दिया जाता है। यहां के लोग इस अंतिम संस्कार को झाटोर या स्काई बुरिअल कहते हैं। इस समुदाय के लोग इस रीति का पालन हज़ार सालों से करते आ रहे हैं।
अंतिम संस्कार के इस प्रक्रिया का पालन मंगोलिया के कुछ इलाकों में भी किया जाता है। इस प्रक्रिया को पालन करने के दो प्रमुख कारण है एक तो तिब्बत बहुत ऊ ंचाई पर स्थित है और वहां पेड़ ज्य़ादा नहीं पाएं जाते हैं और इसलिए वहां शवों को जलाने के लिए लकडिय़ां मिल पाना आसान नहीं होता और दूसरा कारण ये है कि तिब्बत की ज़मीन पथरीली होने के कारण इसे 2 से 3 सेंटीमीटर से ज्य़ादा नहीं खोदा जा सकता जिस कारण वहां शवों को दफनाया भी नहीं जा सकता। यहां के लोगों का मानना है कि आत्मा के निकलने के बाद शरीर एक खाली बर्तन की तरह होता है इसलिए उसे सहेज के रखने की जरूरत नहीं है जिस कारण से शव को आसमान में दफना दिया जाता है।