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विश्व पर्यावरण दिवस का इतिहास
संयुक्त राष्ट्र संघ ने साल 1972 में स्टॉकहोम (स्वीडन) में पर्यावरण और प्रदूषण पर पहला सम्मेलन आयोजित किया। जिसके बाद से प्रत्येक साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई। इस सम्मेलन में करीब 119 देशों ने हिस्सा लिया था। जिसमें भारत की ओर से तात्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भाग लिया था। इसके बाद साल 1974 में ‘ओनली वन अर्थ’ थीम के साथ मनाया गया। अब हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते है। इस दिन सरकारी, सामाजिक और व्यावसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं।
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क्यों है मनाना जरूरी
मौजूदा स्थिति को देखते हुए विश्व पर्यावरण दिवस मनाना बहुत ही जरूरी हो गया है। आज पर्यावरण अंसुतलन बढ़ता ही जा रहा है। लगातार बढ़ती आबादी और अद्यौगिकीकरण, प्राकृति संसाधनों का अंधाधुंध दोहन की वजह से आज वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है। जिसके कारण ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का तटीय इलाके के डूबने का खतरा बनता जा रहा है। पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी को अपने स्तर पर हर संभव कोशिश करनी चाहिए। इसके साथ ही लोगों के बीच पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, ग्रीन हाउस के प्रभाव, ग्लोबल वार्मिंग, ‘ब्लैक होल’ इफेक्ट आदि ज्वलंत मुद्दों और इनसे होने वाली विभिन्न समस्याओं के प्रति सामान्य लोगों को जागरूक करने की जरूरत है।
कोरोना ने बहुत कुछ सिखाया
पिछले दो साल से पूरी दुनिया महामारी कोरोना वायरस से जूझ रही है। लोगों को इस महामारी से काफी सबक मिला है। कोविड—19 और लॉकडाउन के कारण लोगों को घर में बंद रहना पड़ा। जिसके कारण पर्यावरण ने खुल कर सांस लेना शुरू किया है। इस दौरान कई प्रकृति प्रेमी भी बन गए। कई लोगों कोरोना को मात देकर पौधे उगाए रहे है और दूसरों को भी प्रेरित कर रहे है। लॉकडाउन के दौरान गाड़ियों के परिचालन बंद हो जाने के कारण हवा स्वच्छ हुई और मौसम चक्र में भी बदलावा आया है। इस दौरान मानव गतिविधियां या कंस्ट्रक्शन कम होने से प्रदूषण कम हुआ।