दरअसल देश के सात कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ( college and universities ) के साथ मिलकर कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट्स ( confucius institute ) के स्थानीय संस्थानों की स्थापना कर रहा है। वहीं, मंत्रालय ने आईआईटी, बीएचयू, जेएनयू और एनआईटी जैसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों के साथ चीनी संस्थानों के बीच हुए 54 समझौतों (एमओयू) की समीक्षा करने की भी योजना बनाई है। इसने पहले ही विदेश मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को एक अधिसूचना जारी कर दी है।
कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट्स को सीधे चीनी गणराज्य और चीनी संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ( people republic of china ) के शिक्षा मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित किया जाता है। लेकिन चीनी प्रचार प्रसार में मदद के लिए अमरीका और ब्रिटेन सहित दुनिया भर में इनकी आलोचना की गई है।
हाल ही में सितंबर 2019 की बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया ने इस आरोप की जांच शुरू की थी कि “क्या विश्वविद्यालयों और संस्थान के बीच हुए समझौतों ने विदेशी-हस्तक्षेप कानूनों को तोड़ा है।” रिपोर्ट के मुताबिक ठीक इसी दौरान दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों ने इस संस्थान द्वारा संचालित कार्यक्रमों को बंद कर दिया।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो स्टैंडिंग कमेटी के रैंकिंग सदस्यों को भी यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट बीजिंग की सॉफ्ट पावर को प्रोजेक्ट करने के लिए विदेशी प्रचार का हिस्सा हैं।
कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट्स और समझौतों की समीक्षा करने का फैसला ऐसे समय में आया है जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने अक्साई चीन के कब्जे वाले इलाके में लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर 50 हजार से अधिक सैनिकों, टैंकों, मिसाइलों और तोपों को भारत से जारी विवाद के बीच तैनात कर दिया है। इसके अलावा पीएलए ने उत्तराखंड में मध्य क्षेत्र और अरुणाचल प्रदेश में पूर्वी क्षेत्र में भी सैनिकों की तैनाती की है।
केंद्र सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारियों के मुताबिक भारत में जिन कन्फ्यूशियस संस्थानों की समीक्षा की जानी है, उनमें मुंबई विश्वविद्यालय, वेल्लोर प्रौद्योगिकी संस्थान, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, जालंधर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत, स्कूल ऑफ चाइनीज लैंग्वेज, कोलकाता, भारथिअर विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और केआर मंगलम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम शामिल है।
नाम ना छापने की शर्त पर अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने कहा कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का भी हैनबन (कन्फ्यूशियस संस्थान का मुख्यालय) के साथ एक समझौता है। हालांकि फिलहाल जेएनयू में कोई केंद्र नहीं बनाया गया है। जेएनयू के सेंटर फॉर चाइनीज एंड साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के चेयरपर्सन सिनोलॉजिस्ट बीआर दीपक ने कहा, “भारत में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान 2005 के आसपास जेएनयू और पीकिंग विश्वविद्यालय के बीच समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे। बोर्ड के गठन को लेकर कुछ असहमतियों के बाद से संस्थान की स्थापना कभी नहीं की गई थी। चूंकि एमओयू पर पांच साल के लिए हस्ताक्षर किए गए थे, इसलिए यह समाप्त हो गया है। चीनी अधिकारी बाद में इसे फिर से शुरू करना चाहते थे, लेकिन विश्वविद्यालय ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई।’
सुरक्षा एजेंसियों द्वारा बीते 15 जुलाई को कैबिनेट सचिव राजीव गौबा के समक्ष उच्च शिक्षा और भारतीय दूरसंचार क्षेत्र में चीनी पैठ को लेकर शिक्षा मंत्रालय ने एक प्रजेंटेशन पेश किया था। इस बैठक में भारत सरकार के वरिष्ठतम सचिव मौजूद थे। यह इस बैठक में दो अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में बीजिंग की उपस्थिति की समीक्षा करने का निर्णय लिया गया था। यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार समीक्षा के बाद क्या फैसला लेगी, लेकिन ऐसी जानकारी सामने आई है कि शिक्षा मंत्रालय विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और संस्थानों से सवाल करेगा कि क्या उन्होंने चीनी विश्वविद्यालयों या हैनबन के साथ समझौता करने से पहले इससे या विदेश मंत्रालय से अनुमति ली थी।