100 साल में पहला मौका जब नहीं भरेगा ‘आदिवासी लघु कुंभ’

परंपरा और संस्कृति पर लगा कोरोना का ग्रहण, व्यापारियों और दुकानदारों को नुकसान

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बारां. यू तो समूचा राजस्थान अपनी रंग-बिरंगी संस्कृति और विरासत के लिए देशभर में विख्यात है। प्रदेश के हर जिले, संभाग में कई मेले भरते हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते न केवल रोजगार, व्यवसाय और जनजीवन प्रभावित हुआ है, बल्कि इसने संस्कृति और विरासत को भी खासा प्रभावित किया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरसण है बारां जिले के सहरिया इलाके में भरने वाला सबसे बड़ा सीताबाड़ी का मेला। अपने 100 साल के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब ये मेला नहीं भरेगा। बारां जिले से 45 किलोमीटर दूर नेशनल हाइवे 27 पर स्थित केलवाड़ा कस्बे का सीताबाड़ी तीर्थ स्थल राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक माना जाता है। इसका धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। यह मेला हर साल ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अमावस्या को सीताबाड़ी धार्मिक एवं पशु मेला के नाम से भरता है यह प्रसिद्ध मेला आदिवासी लघु कुम्भ के नाम से भी जाना जाता है।
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यह है मान्यता
सीताबाड़ी को वो पवित्र जगह माना जाता है जहां भगवान राम ने सीता का त्याग कर दिया था। तब माता सीता अपने निर्वासन के बाद यहीं पर ठहरी थी। यहां महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था और इसी आश्रम में माता सीता ने दोनों पुत्र लव और कुश को जन्म दिया था। महर्षि वाल्मीकि ने लव-कुश को यहीं शिक्षा-दीक्षा दी और उन्हें धनुर्विद्या में पारंगत किया। सीताबाड़ी में स्थित प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर, महर्षि वाल्मीकि मंदिर, सीता मंदिर ,लवकुश मंदिर, सूरज कुंड आज भी यहां आने वाले श्रद्धालुओं को त्रेता युग की याद ताजा कर देते हैं।
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पशु मेला भी आकर्षण
यहां पर भरने वाले मेले का प्रमुख आकषर्ण पशु मेला भी होता है। पहले इस मेले में किसान खेती के लिए हल जोतने व लकड़ी की गाड़ी के लिए बैल खरीद कर ले जाया करते थे। अब आधुनिक युग में ट्रैक्टर आदि आने के बाद से बैल की आवश्यकता नाम मात्र की रह गई है। इसलिए यहां अब पहले की तरह बड़ी संख्या में देशी नस्ल के बैल बिकने नहीं आते।
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मनोरंजन के भी साधन
बड़पूजनी अमावस्या से प्रारम्भ होने वाले इस मेले में दूर दराज से बड़ी संख्या में मेलार्थी अपने बाल बच्चो सहित परिजनों को लेकर इस मेले में सिनेमा, झूले-चकरी , मौत का कुआं, सर्कस, ब्रेक डांस झूला, चाट-पकोड़ी का आनंद लेते हुए खरीददारी करते थे।
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अरमानों पर फिरा पानी
इस बार सीताबाड़ी धार्मिक एवं पशु मेला का आयोजन नहीं होने से यहां अन्य जगहों से आने वाले दुकानदारों की आजीविका पर खासा प्रभाव पड़ा है। मेले में दुकानें लगाने और व्यवसाय करने से दुकानदारों को अच्छी-खासी आमदनी होती थी। इस बार मेला नहीं भरने से इन सभी के लिए जीविकोपार्जन का साधन खत्म हो गया है। लॉकडाउन के बाद से ही यहां की स्थायी दुकानें मंदिर के पट बंद होने के साथ ही बंद पड़ी हैं। गरड़ा के तालाब में तरबूज की बंपर पैदावार होती है। केलवाड़ा कस्बे के निकटवर्ती ग्राम खिरिया में भी बड़ी मात्रा में लाल प्याज की पैदावार होती है। बाजार में इसकी अत्यधिक मांग होती है। कोरोना लॉकडाउन के चलते मंडियों में इस बार ज्यादा डिमांड नहीं होने से इन प्याज उत्पादकों को भी नुकसान हुआ है।
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यह है इतिहास
यहां के मंदिरों में जलकुंड बने हैं, जिनमें वाल्मीकि कुंड, सीता कुंड, लक्ष्मण कुंड, सूरज कुंड और लव-कुश कुंड प्रमुख और सबसे प्राचीन माने जाते हैं। शिव-पार्वती व राधाकृष्ण मंदिर में भी कुंड बने हैं। सीताबाड़ी में कुछ दूरी पर सीता कुटी बनी है, कहा जाता है कि निर्वासन के दौरान माता सीता रात्रि में यहीं विश्राम किया करती थीं। माता सीता को लक्ष्मण ने निर्वासन की अवधि में सेवा के लिए इसी स्थान पर वाल्मीकि आश्रम में छोड़ा था। एक किवदंती है कि जब सीताजी को प्यास लगी, तो पानी के लिए लक्ष्मणजी ने इस स्थान पर धरती में तीर मार कर जलधारा उत्पन्न की थी।
चर्मरोगों से मुक्ति
लक्ष्मण मंदिर के महंत पंडित राजेंदर मालवीय ने बताया धार्मिक स्थल सीताबाड़ी में कई राजस्थान ही नहीं बल्कि अन्य कई राज्यों व जिलों से श्रद्धालु दर्शन करने बड़ी तादात में पहुंचते हैं। कई श्रद्धालु कनक दण्डवत करते दूर-दराज के क्षेत्र से यहां आते हैं। सीताबाड़ी में प्रसिद्ध मंदिरों के जलकुंड में स्नान करके श्रद्धालु मोक्ष की कामना करते हैं। प्राचीन मान्यता है कि यहां के कई कुंड ऐसे भी हैं, जिनमें स्नान कर चर्मरोगों से मुक्ति मिल जाती है। आदिवासियों और सहरियाओं के लिए यह मेला और स्थान खासा महत्व रखता है। इसलिए इसे सहरियाओं का कुंंभ भी कहा जाता है।
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लाखों की आय नहीं होगी
सीताबाड़ी धार्मिक एवं पशु मेले से स्थानीय एवं बाहर से आए हुए दुकानदारों को अच्छी खासी आय होती थी। आयोजन कमेटी ग्राम पंचायत दाता को भी ढाई से तीन लाख रुपए की आमदनी होती थी। इसे मेला आयोजन कमेटी द्वारा मेले की सजावट, जल व्यवस्था, सफाई कर्मी, विद्युत व्यवस्था इत्यादि पर खर्च होती थी। दुकानदारों के लिए यह मेला वरदान साबित होता था बर्तन, खिलौने, हाथ से बने झाड़ू, प्याज, तरबूज, मनिहारी का सामान, झूला-चकरी, ब्रेक डांस, मौत का कुआं, सर्कस, मैजिक शो, फोटो स्टूडियो, चाट-पकोड़ी होटल इत्यादि के व्यवसाय से इस मेले में रौनक और आय होती थी। कोरोना संक्रमण के चलते मेला नहीं भरने से स्थानीय एवं बाहर से आने वाले दुकानदारों को लाखों रुपए का नुकसान हुआ है।
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